रविवार, 4 दिसंबर 2011
"नाऊ,धोबी-दरजी,ये तीनों अलगरजी"
बुधवार, 23 नवंबर 2011
छ-छ पैसा,चल कलकत्ता
मंगलवार, 22 नवंबर 2011
'बुद्धू' की डायरी का इंतजार...!
आज यानी २१ नवम्बर,२०११ से आप सब के समक्ष
'बुद्धू' की डायरी नाम से एक सीरिज प्रस्तुत करने जा रहा हूँ.
प्रस्तुत डायरी में 'दिन-तारीख और घटनाएँ सिलसिलेवार नहीं दिखेंगी/मिलेंगी.
क्योंकि 'बुद्धू' जी ने इतनी डायरियां लिखी हैं,जिसका एक जगह संग्रह नहीं है.
जैसे-जैसे 'बुद्धू' की डायरी के अंश मिलते जायेगें,वैसे-वैसे उनके जीवन का सच उजागर होता जायेगा.
अब आप सब यह जानना चाहेंगे कि 'बुद्धू' नाम का जीव है क्या ?
तो सुनिए... !
इसके पीछे का इतिहास यह है कि 'बुद्धू' जिस लड़की से मिलता-जुलता,मेल-मिलाप रखता-बढ़ाता,उसकी आँखें-चहरे की भाषा,देह/शरीर का मनोविज्ञान और परिभाषा नहीं समझ पाता,जिसकी वजह से लड़कियाँ उसे 'पढ़े-लिखे बुद्धू' कहकर चिढाती,अक्सर उसकी ज़िन्दगी से दूर चली जातीं थीं.
'बुद्धू' को इस बात का अहसास बहुत... बाद में होता,तब तक उसकी पूरी दुनिया ही बदल चुकी होती.
इस प्रस्तुति में छंद,भाषा,शिल्प,गठन,प्रवाह और व्याकरण पर ध्यान न दें,सिर्फ और सिर्फ भावरस का रस्सास्वादन करें.
मज़ा आने पर आलोचना आमंत्रित है...
रविवार, 18 सितंबर 2011
'विज्ञापन' दो,हम आपके पक्ष में 'भोकेंगे'... !
सोमवार, 29 अगस्त 2011
मीडिया अब 'वाच डॉग' कम,कटहा कुत्ता अधिक !
१. जब मीडिया 'मिशन' की जगह प्रोफेशन / व्यवसाय / व्यापार बन गया है तो उसके ऊपर भी वहीँ नियम लागू होने चाहिए जो एक व्यवसाय जगत के लिए होता है.
२. जब मीडिया की मनमानी पर कोई सवाल उठता है तो वे 'अभिव्यक्ति की आज़ादी' का झंडा लेकर खड़े हो जाते हैं.
३. मीडिया को कोई "सर्वहारा" नहीं चला रहा है.इसे चलाने वाले पूंजीपति हैं.वे कोई देश या राष्ट्र सेवा नहीं कर रहे हैं और न ही वे राष्ट्र भक्त हैं,वे सिर्फ और सिर्फ पूंजी भक्त हैं.उन्हें लाभ का आसार जहाँ दिखेगा,वे वहां तक अपना और पूंजी का विस्तार करेंगे.
४.जग जाहिर है कि पूंजी और बाज़ार का कोई मूल्य या आदर्श नहीं होता,उसका स्वाभाव लाभ कमाना है.लाभ ईमानदारी के रास्ते नहीं,बेईमानी के रास्ते कमाए जाते हैं.
५.जब मीडिया को "चौथा स्तम्भ" कहा जाता है तो इसके साथ उसकी जिम्मेदारी,जवाबदेही, प्रतिबद्धता,मूल्य,आदर्श और "मिशनरी" भावना है.इसीलिए इसे दूसरे पेशे से अलग सम्मान की निगाह से देखा जाता है.
६.आप मीडिया के शिक्षक (राघवेन्द्र जी) हैं और ऐसे कई घटनाओं के गवाह भी हैं,जब मीडिया में रहते हुए मैंने आप से साझा किया था.मीडिया संस्थानों में कार्यरत मीडियाकर्मी को उसके श्रम का पूरा भुगतान क्यों नही होता.श्रम कानून क्यों नहीं लागू होते.
७. मीडिया मालिकानों,राजसत्ता और लालफीताशाही का वह कौन सा गठजोड़ है,जिसका लाभ सिर्फ मालिकानों को मिलता है.
८. मीडिया मालिकान किस आधार पर (ज्ञान) समान योग्यता वालों को अलग-अलग लाभ और वेतन देते है.
९. मीडिया सिर्फ-सिर्फ एक माध्यम है.असली भूमिका तो वो निभाते हैं जो उसका संचालन कर रहे हैं.जाहिर है संचालक जैसा होगा परिणाम भी उसी तरह का निकलेगा.
१०.अब हम मीडिया को लेकर किसी भ्रम में नहीं जीते हैं.मीडिया अब तक जिन सवालों को उठता रहा है,वे सवाल किससे जुड़े रहे हैं...? वह वर्ग कौन सा है. इस पर जरुर विचार होना चाहिए .
११.हम लोग खेत-खलिहान और मड़ई से निकलकर संघर्षों के रास्ते आगे बढ़े हैं.समाज को अपनी नगाहों से देखते हैं,किसी रंगीले चश्में से नहीं....
१२. अब नज़रें धोखा नहीं खातीं हैं .....
१३. पूंजीवाद का चरित्र पानी पर फैले तेल की तरह है.
१४ .मेरा विचार है मीडिया को भी 'लोकपाल' के दायरे में आना चाहिए क्योंकि मीडिया अब बहुत से मामलों में 'वाच डॉग' नहीं,कटहा कुत्ता हो गया है....!
१५.मीडिया में आम आदमी कहाँ है.जल,जंगल,जमीन के लिए संघर्षरत लोग कहाँ स्पेस पाते हैं..?
१६. आदिवासी,दलित,पिछड़े और अल्पसंख्यक मीडिया में कहाँ हैं...? मीडिया संस्थानों में किस वर्ग की अधिकता है.
१७.मीडिया संस्थानों में निर्णय लेने वाले कौन लोग हैं,वे किस जमात से आते हैं.वे किसके हितों का संरक्षण करते हैं ...?
१८.टीवी और अखबारों में जो विज्ञापन दिखाए और प्रकाशित किये जाते हैं,उसकी प्रमाणिकता की जाँच कौन करता है.यह जनता में सपन दिखा कर किसको लूटते हैं.
१९.मीडिया को नेताओं के 'पीकदान' से कब मुक्ति मिलेगी.'पैड न्यूज़' की बदौलत कब तक मीडिया मन पसंद लोगों का छवि निर्माण करेगा और बाकियों को नंगा....
२०. इन सवालों का जवाब भी तो मीडिया संस्थानों से ही मिलने चाहिए.हमें किसी को फ़रिश्ता-भगवान मानने से इंकार करने की साहस दिखाने होगी.
गुरुवार, 9 जून 2011
कट्टरता कला का विकल्प नहीं
प्रख्यात चित्रकार एम एफ हुसैन अब हमारे बीच नहीं रहे. न केवल हमारे बल्कि दुनिया के मुल्कों के कला जगत में हुई इस रिक्तता शायद ही कभी भर पाए. अपनी कुछ चित्रों की वजह से हमेशा विवादों में रहे हुसैन साहब को अंततः मुठ्ठी भर कट्टरवादी ताकतों की वजह से दुसरे मुल्क में शरण लेनी पड़ी थीं.उनके विरोधियों को समझना चाहिए कि दुनिया में कट्टरता कभी भी कला का विकल्प नहीं बन सकता है भारत उनके मन -मिजाज़ में इस कदर बैठा था कि कभी भी वे इसे अपने दिल से अलग नहीं कर सके.भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश होने का दावा करता है लेकिन हुसैन साहेब के मामले में इसे प्रमाणित नहीं कर सका.वे एक प्रगतिशील कला के वाहक थे. भारत का कला जगत उनसे बहुत कुछ हासिल कर सकता था.लेकिन ऐसा हो न सका. कला की नई पीढ़ी से उम्मीद है कि वे न केवल निरंतर उनकी कला को जिंदा रखेगी बल्कि उसे आगे भी बढ़ाएगी
तमाम कट्टरवादी ताकतों के विरोध के वावजूद एम एफ हुसैन इस मुल्क के धरोहर के रूप सदा याद किये जायेंगे.अपनी कला के मार्फ़त वे हमारे दिलों-दिमाग में हमेशा जिंदा रहेंगे.अपने युग में अपने तरह के अलग कला के इस प्रगतिशील कला नायक को मेरी तरफ से SHRADHANJALI...!
रविवार, 5 जून 2011
दिल्ली के दामन पर दमन का दाग
इस देश में गाँधी भी हमीं हैं,गोडसे भी हमीं हैं,सिर्फ हमीं गाँधीवादी हैं.
महात्मा गाँधी पर सिर्फ और सिर्फ हमारा प्रापर्टी-कॉपी राइट है.
गाँधी के आदर्शों पर सिर्फ हमें चलने का हक-अधिकार है.बाकियों को नहीं,या फिर हम जिसे लाइसेंस दें.
हम जहाँ कहीं भी,जिस किसी के खिलाफ आन्दोलन करेंगे वह सत्याग्रह माना जाएगा.बाकियों का नहीं.
सिर्फ हमीं अहिंसा के रास्ते पर चल सकते हैं,यदि दूसरे चलेंगे तो अराजकतावादी कहलायेंगे.
नैतिकता के असली वारिश (असल में ठेकेदार) हमीं हैं,बाकी सब तो अनैतिक हैं.
सिर्फ हमीं सत्य बोलते हैं,बाकी सब तो असत्य के पुजारी हैं.
हमारा साधन और साध्य हमेशा पवित्र और गाँधीवादी रहा है.बाकियों का अपवित्र और छलावा है.
सिर्फ हमीं 'स्वराज' ला सकते हैं,बाकी तो 'लूट-खसोट का राज' स्थापित करना चाहते हैं.
हमीं हैं जो हरेक आँख से हरेक आंसू पोछ सकते हैं,बाकी सब तो आंसू बहाना जानते हैं.
सिर्फ हमीं धर्मनिरपेक्ष हैं,बाकी तो धर्म का धंधा करते हैं.
इस देश पर शासन-सत्ता का सिर्फ हमारा हक और अधिकार है.बाकियों का नहीं.भूल गए क्या...!
अंग्रेजों से आजादी भी हमीं ने दिलवाई,देश पर चालीस साल से अधिक सत्ता पर काबिज भी हमीं रहे.
इस देश को और देश की जनता की गाढ़ी कमाई को लूटकर विदेशी बैंकों में जमा काला धन हमारा ही है.
इसलिए यहाँ की भोली-भाली जनता को लूटने का हक और अधिकार सिर्फ और सिर्फ हमारा है,
इसका अनुभव भी हमारे पास है,बाकियों ने तो जनता को गुमराह किया है.
गाँधी के सत्याग्रह,अहिंसा और बंधुत्व-भाईचारा का पालक सिर्फ हमीं हैं.
जन के मन पर राज करने का हक सिर्फ हमारा है.
आपातकाल के नायक भी हमीं हैं,लोकतंत्र के पोषक भी हमीं हैं,बाकी तो अलोकतांत्रिक हैं .
हम खतरे में हैं तो हमारी कुर्सी खतरे में है,जब कुर्सी खतरे में है तो लोकतंत्र खतरे में.
दाता भी हमीं हैं,दानव भी हमीं हैं.राम भी हमीं हैं, रावण भी हमीं हैं.
दमन भी हमीं करते हैं,धवल दामन भी हमारा ही है.दिल्ली के दामन पर दमन का दाग भी हमारा है...
रविवार, 8 मई 2011
'मां' पर 'कविता' लिखो ...!
गुरुवार, 5 मई 2011
बलुहट मिट्टी में तब्दील होती 'ज्ञान गंगा' !
बुधवार, 4 मई 2011
श्रद्धांजलि...!
रविवार, 1 मई 2011
मीडिया, महंत और मायाजाल ...?
शनिवार, 30 अप्रैल 2011
खूबियों के सहारे चैनल का नाम बताने की चनौती ...?
1. लीक से हटकर,पॉलिशदार,संयमित,ग्लैमर,
भोजन,खेल, राष्ट्रीय -अंतर्राष्ट्रीय खबरों की प्रस्तुति...
2. चिट-चिट,कीट-कीट मिश्रित,सरकारी महिमामंडन,
उदास और बेरुखे खबरों की प्रस्तुति ...
3. भूत-परेत, ओझैती-सोखैती, नाग-नागिन,
हरार से भरपूर चासनीदार खबरों की प्रस्तुति ...
4. आक्रामक अंदाज़, डंके की चोट पर, शब्द -संवाद
में धार,कभी-कभी किसी खास विचारधारा का घोल,
जरुरत से अधिक खिंचाव और किसी के मुंह में अपना
शब्द-विचार डालकर निकाल लेने की कला..
5. मालिकान के भविष्य के भविष्य को बेहतर
बनाने बनाना और कभी सत्ता के आगे कभी सत्ता
के पीछे चलने की फितरत...
6. पीपली लाइव दिखा चुका है, मैं क्या लिखूं...?
बुधवार, 27 अप्रैल 2011
सर! कैमरा चाहिए, वाहन है...?
इलेक्ट्रोनिक मीडिया स्टुडेंट्स को कैमरा देने के लिए आपको नियम बनानें हैं.
सोमवार, 25 अप्रैल 2011
खिचड़ी-खीर का स्वाद...
शनिवार, 16 अप्रैल 2011
गंगा तुम बहती हो क्यूँ
गंगा तुम बहती हो क्यूँ
विस्तार है अपर प्रजा दोनों पर
करें हाहा:कार नि:शब्द सदा ओ गंगा तुम गंगा बहती हो क्यूँ
नैतिकता नष्ट हुई मानवता भ्रष्ट हुई
निर्लज भाव से बहती हो क्यूँ इतिहास की पुकार करे हूंकार
ओ गंगा की धार निर्बल जन को
सबल संग्रामी समग्रो गामी बनाती नहीं हो क्यूँ
अनपढ़ जन अक्षरहीन अनगिन जन खाद्य विहीन
नेत्र विहीन दिख मौन हो क्यूँ
इतिहास की पुकार करे हूंकार
ओ गंगा की धार निर्बल जन को
सबल संग्रामी समग्रो गामी बनाती नहीं हो क्यूँ
व्यक्ति रहे व्यक्ति केन्द्रित सकल समाज व्यक्तित्व रहित
निष्प्राण समाज को तोड़ती न क्यूँ
इतिहास की पुकार...
श्रतस्वीनी क्यूँ न रही तुम निश्चय
चेतन नहीं प्राणों में प्रेरणा देती न क्यूँ
उन्मद अबनी कुरुक्षेत्र बनी
गंगे जननी नव भारत में
भीष्मरूपी सुतसमर जयी
जनती नहीं हो क्यों.
-भूपेन हजारिका
गंगा बहुतों के लिए जीवनदायनी और मोक्षदायनी हैं
लेकिन बहुतों के लिए चरने- खाने का केंद्र भी.
गंगा के नाम पर लूटने-खाने वालों की बढती जमात और
गंगा सेवा के नाम पर रोज़ नई -नई खुलती दुकानें
फिर भी सुखती गंगा, दुखती गंगा, गंगा की बढती दुर्दशा पर
आज भूपेन हजारिका जी की याद आ गयी.
शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011
'पलटन' ने पलटा 'इग्नू' का इतिहास
नाटक का प्रस्तुति किया. कलात्मक अभियान, मेहनत, लगन और सृजनात्मक सोच के जरिये
शुक्रवार, 25 मार्च 2011
दिल्ली... !
बुधवार, 23 मार्च 2011
बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी...?
लगता है अब अमेरिका दुनिया को अपने तरीके से चलाना चाहता है. असली जीवन में मानवाधिकारों को कुचलने वाला अमेरिका दुनिया में मानवाधिकारों का रक्षक होने का दावा (ढोंग) करता फिर रहा है.याद कीजिये गुआंतनामो जेल की घटना को. इराक और अफ़गानिस्तान के बाद लीबिया पर हमला न केवल अमेरिका के दबंग मानसिकता को उजागर करता है बल्कि उसके दुनिया का दादा बनने की तरफ इशारा भी करता है. लीबिया पर अमेरिका,ब्रिटेन फ्रांस की सेनाओं के हमले के पीछे का राज़ क्या है.? तेल का खेल या और कुछ, गद्दाफी का कदम अलोकतान्त्रिक है. लेकिन क्या उसकी तुलना में पश्चिमी सेनाओं की कार्रवाई जायज है. इराक -अफगानिस्तान में अमेरिका ने जो किया वह अब छुपा नहीं है.क्या अब दुनिया में अमेरिका परस्त सरकारों की जरुरत है..? क्या अमेरिका दुनिया में कठपुतली सरकार और लोकतंत्र चाहता है.. ? जो उसके इशारों पर नाचे और उसकी बातों को आँख मुंदकर स्वीकार कर ले. दुनिया की सरकारें जीतनी मजबूर और लाचार होंगी, अमेरिका को उनपर अपने आर्थिक हितों को लादना उतना ही फायदे मंद होगा. इसलिए अमेरिका कहीं भी कभी भी मजबूत, ताकतवर,स्वाभिमानी और स्वतन्त्र अर्थव्यवस्था वाले लोकतान्त्रिक देश को कबूल नहीं करेगा.जिस देश की सरकार अमेरिका को पसंद नहीं है, वहां वह आतंरिक बगावत-विद्रोह करने का षडयंत्र रचता है. जब दुनिया दो खेमों में बंटी थी, तब की परिस्थितियां अलग थीं, देशज शब्दों में कहूँ तो अब अमेरिका दुनिया में 'छुट्टा सांड' की तरह घूम रहा है. किसकी मजाल है, जो उसे पकड़ कर पगहे (रस्सी) में बांधे. भूमंडलीकरण और आर्थिक उदारीकरण की नीतिओं से लथपथ दुनिया के देश उसी हद तक अमेरिका का विरोध कर सकते हैं, जहाँ तक उनकी अंतर्राष्ट्रीयहित प्रभावित न हो. आज कोई भी देश अंतर्राष्ट्रीय मुख्यधारा से अलग नहीं होना चाहता है. जाहिर हर देश की विदेश नीति राष्ट्रीय हितों पर टिकी होती है. लेकिन जब अमेरिका एक-एक देश को चुन-चुन कर शिकार बना रहा है . ऐसी स्थिति में उन देशों का क्या होगा जो आज लीबिया पर हमले के समय मौन हैं.बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी...?
शुक्रवार, 18 मार्च 2011
शुभकामनाएं...!
गुरुवार, 17 मार्च 2011
धनवादी प्रणाली पर टीकी, भारत की जनवादी प्रणाली
जुलाई २००८ में UPA सरकार नोट रूपी संजीवनी से बची थी. इसका खुलासा विकिलीक्स ने किया है.परमाणु करार पर अल्पमत में आयी तत्कालीन सरकार ने बहुमत हासिल करने के लिए सांसदों को १०-१० करोड़ रुपये बतौर रिश्वत दिया था. सरकार के पक्ष में २७५ व् विपक्ष में २५७ वोट पड़े थे, जबकि १० संसद अनुपस्थित थे.भारतीय मीडिया इसको सनसनीखेज खुलासे के तौर पर पेश कर रहा है .जबकि ये बात देश की अनपढ़,गंवार और जाहिल कही जाने वाली आम जनता भी जानती है कि खरीद-फ़रोख्त के बल पर ही सरकार बची थी. विकिलीक्स ने तो मात्र अमेरिकी दूतावास के संदेस के आधार पर खुलासा कर इस पर अंतर्राष्ट्रीय मुहर भर लगा दी है. चूँकि विकिलीक्स के पूर्व के खुलासे को दुनिया (अमेरिका) ने ख़ारिज कर दिया, इसलिए भारत सरकार भी उक्त सूचना पर भरोसा नहीं करती है.राजनीतिक मौकापरस्ती की कहानी ये नई तो नहीं है .धनवादी प्रणाली पर ही भारत की जनवादी प्रणाली टिकी है.राजतन्त्र में राजा रानी के गर्भ से पैदा होता था,लोकतंत्र में वोट से पैदा होने लगा, लेकिन अब परिपाटी बदल गयी हैं. अब राजा नोट से पैदा हो रहा है. इसलिए नोट उसके लिए संजीवनी है.तभी तो जो सूचना दुनिया के सबसे बड़े ईमानदार PM को नहीं मिली वो विकिलीक्स तक कैसे पहुंची. इसका मतलब सरकार चलाने वाले जानते हैं की सरकार कैसे बनाई और चलाई जाती है. कहीं यह सूचना लिक करने में ISI का हाथ तो नहीं है.
बुधवार, 16 मार्च 2011
फ्रेंच भाषी को भोजपुरी में नौकरी !
मुखौटा लगाकर राजाओं (नोट -वोट की बदौलत लोकतंत्र में स्वयंभू राजा)
से मिलता था.एक दिन उसे एक सजातीय राजा मिल गया
और उस खबरनवीस को वह एक कुनबे का मुखिया बना दिया.
अब खबरनवीस खुद को राजा घोषित कर बैठा.
इस नए राजा ने लोगों को नौकरी देने का जाल बिछाया.
इससे उसकी लोकप्रियता बढ़ गयी. डिग्री धारी बेरोजगार जब उसके पास नौकरी के लिए जाते,
राजा उन्हें देखते ही समझ जाता.सो एक नया दांव चलता.
अंग्रेजी भाषी को उर्दू में और फ्रेंच भाषी को भोजपुरी व
हिंदी भाषी को तमिल अखबार-चैनल में नौकरी देने का वादा करता.
दरअसल राजा के पास नौकरी उसी भाषा में होती जिस भाषा से बेरोजगार अनभिज्ञ थे.
(असल में नौकरी कही नहीं थी) इस बात को राजा जानता था,लिहाजा वह बेरोजगारों को उलाहना देता,
कहता जब तुम लोगों को भाषा ही नहीं आती तो नौकरी क्या करोगे. तुम लोगों का जीवन व्यर्थ है.
बेरोजगारों को भाषा की अज्ञानता का इस कदर बोध होता की वे आत्मग्लानी से भर जाते.
और सोचते वास्तव में उनका जीवन व्यर्थ है.
नोट: राजा को जानने वाले बताते हैं की राजा खुद अल्प ज्ञानी था.