रविवार, 4 दिसंबर 2011

"नाऊ,धोबी-दरजी,ये तीनों अलगरजी"



"नाऊ,धोबी-दरजी,ये तीनों अलगरजी" 

१. दरजी !
बचपन में जब कभी बुजुर्गों के मुख से ये उक्ति सुनता था तो इसका अर्थ बहुत स्पष्ट समझ में नहीं आता था.जैस-जैसे बढ़ता गया,इसे सही अर्थों में समझता गया.

करीब 6 -7 साल की उम्र रही होगी.होली का त्यौहार था.तब इस त्यौहार को हम बच्चों के लिए  नए कपडे सिलवाया जाता था.गाँव से कुछ दूर एक पीढ़ी गत रिश्ते के दरजी के पास हम लोगों का कपड़ा सिलने के लिए दिया जाना था.नाप देने के लिए सशरीर जाना पड़ा.

दादा ने पूछ कब मिलेगा,बोला आज से पांचवे दिन.जिस दिन दादा कपड़ा लेने जा रहे थे.उत्साह में हम लोगों ने भी जाने की जिद की.दादा मान गए.हम लोग खेलते-कूदते पहुंचे.

दरजी के यहाँ होली के 'त्यौहार' पर कपड़ा देने-लेने वालों की भीड़ जमा थी.दादा को देखते ही दरजी बोला सरदार जी ! अभी तैयार नहीं है,कल भेजवा दूंगा.आने की जरुरत नहीं है....

इतना सुनना था कि 'दादा' गरम हो गए..... 

खास: 
कपडे हम लोग पहनते थे,सिलाई का नमूना बड़े बुजूर्ग पसंद/तय करते थे.उन लोगों का पसंद, हम लोगों के पसंद पर भारी पड़ जाता था.बचपन भी बुजूर्गों की मर्जी और पसंद के हवाले था.  

२. नाई !

खैर,हमलोग,मसलम, हम और हमसे ६ माह छोटा,मेरे चाचा.दादा बोले चलो तुम दोनों का बाल कटवाते चलते हैं.

जब हम लोग पीढ़ी गत नाई के पास गए,देखा कि उसके यहाँ भी लोग अपने बारी का इंतजार में बैठे हैं.हम लोगों को देखते ही दादा से बोला सरदार जी !

आप घर जाइये,कल सुबह हम 'पाही'  पर ही आ जायेंगें.दादा बोले जरुर आ जाना,होली आ रहा है,उसने बोला,जी ! आज शाम को छुरा पर 'धार' दिलवाने जाना है,कल जरुर से आऊंगा. 

तीन दिन तक उसका कल नहीं आया....
 
३. धोबी !

हम लोग पाही के नजदीक पहुंचे ही थे कि गाँव से आते हुए धोबी को दादा ने देख लिया.दादा कुछ मामलों में हमेशा चौकन्ना रहते थे.धोबी के मामले में भी.बोले क्या मंगरू कपड़ा लाये,बोला ! सरदार जी,सोमवार से लगातार मौसम ख़राब हैं.

कपड़ा तो धो दिया हूँ,लेकिन सुखा नहीं है.दादा बोले लेकिन तुम तो शनिवार को ही पहुँचाने का वादा किये थे.

बोला वो क्या था कि घर पर मेहमान आ गये थे,इसलिए धोने के लिए मौका ही नहीं निकल सका.

अब आप लोग समझ ही गए होंगे कि उक्त तीनों घटनाक्रम के बाद 'दादा' के दिमागी पारा का ग्राफ क्या रहा होगा...? 

दादा फटकारते हुए.पाही पर चल दिए.पाही पर एक दो मेहमान आये हुए थे,बाकि सब चाचा महफ़िल जमाये हुए थे.

दादा से लोगों ने पूछा क्या हुआ 'बाऊजी' कपड़ा नहीं मिला...इसी बीच मुझसे छोटे चाचा ने दादा को चिढ़ाने के लिए बोल दिया,फालतू का घूमा रहे हैं,सुबह से एक काम नहीं हुआ.

दादा भड़क गए,बोले सा..... 

"नाऊ,धोबी-दरजी,ये तीनों अलगरजी" 

दादा अब दुनिया में नहीं रहे.

आज 

आज तीस साल बाद उनकी कही यह बात याद आ गयी.शाम को धोबी को अल्टर के लिए पैंट दिया था.बोला एक घंटे में आइये,मिल जायेगा.जब मैं गया तो बोला अभी तैयार नहीं है,कल ले लीजियेगा....



नोट. 
इस पोस्ट को जाति गत निगाह से नहीं,पेशे गत नज़र से देखें और पढ़ें...   

बुधवार, 23 नवंबर 2011

छ-छ पैसा,चल कलकत्ता


मित्रों ! 
कल हमने 'बुद्धू' की डायरी प्रस्तुत करने की सूचना दी थी,लेकिन अब 'बुद्धू' की जगह 'पढ़े-लिखे अजनबी' के नाम से प्रस्तुत कर रहा हूँ.यह सुझाव 'बुद्धू' का है.
 (भाग एक) 
लड़कियाँ उन्हें 'पढ़े-लिखे पगलेठ' कहती थीं,लेकिन 'बुद्धू' अपने को 'पढ़े-लिखे अजनबी' समझते थे.  
किसी की यह पंक्तियाँ उधार लेकर 'बुद्धू' अपने जीवन दर्शन को इस तरह गुनगुनाया करते थे-
बदला न अपने आप को जो थे वही रहे
मिलते रहे सभी से मगर 'अज़नबी' रहे   
अपने तरह अर्से से किसी की तलाश है 
हम जिसके भी करीब रहे,दूर ही रहे.  

'पढ़े-लिखे अजनबी' का 'नंगा युग'
मेरा जन्म १९७० के दशक के प्रारंभ के चौथे वर्ष के किसी महीने में हुआ था.इसके साल,समय और तारीख का लिखित और अधिकारिक प्रमाण मेरे पास नहीं है.उस समय के स्कूलों में लोग अनुमान के सहारे दाखिला कराते थे.मेरा भी इसी पद्धति से हुआ था.मेरे पैदाइश के कुछ साल बाद मेरी माँ,नानी गाँव आ गयीं.मेरा 'नंगायुग' यहीं बीता.यह गाँव एक औद्योगिक इलाके से सटा हुआ था.इन दोनों के बीच में एक रेलवे लाइन थी,जो दोनों को चीरते हुए दिल्ली निकल जाती.लेकिन यहाँ के लोग कभी दिल्ली नहीं जाते.सिर्फ दिल्ली और कलकत्ते की तरफ ट्रेनों को आते-जाते देखते और एक दिन सवार होने के लिए सपने बुनते.ट्रेनें आखों से ओझल हो जातीं,ख्वाब लोगों के दिलों में सिमट जाते.खेतों में काम करने वाले लोग,खासकर महिलाएं ट्रेनों को आते-जाते देखतीं.ट्रेनों के गुजरते समय खेत मालिक इन महिलाओं पर खास ध्यान रखता.      
गाँव में सभी जातियों का मिश्रण था,लेकिन दबदबा बनिया वर्ग का था.गाँव के सम्पूर्ण भू-भाग के ७५ फीसदी हिस्से पर इनका ही कब्ज़ा था.बाकी जातियों के अधिकतर लोग,इनके यहाँ मजदूरी करके जीवनयापन करते थे.गाँव में बनियों ने 'आम' और 'नीबू' के कई बागीचे लगा रखे थे.क्या मजाल की गाँव के बच्चे आम के पेंड़ पर एक ढेला चला दें.यदि किसी को ढेला चलाते हुए बगीचा मालिक देख लेता तो उसके घर तक दौड़ाता.बगीचा से हमारा घर नजदीक था.हम बच्चे इसका फायदा उठाते.बगीचा मालिक दूर कहीं से चिल्लाता.हम सब भागकर किसी के घर में छूप जाते.मोहल्ले में आकर वह दहाड़ता.लोगों से शिकायत करता.किसी दिन पहचान लेता तो घर तक पहुँच जाता.माँ से बोलता 'मंजरी' अपने बेटे को समझाओ.मोहल्ले के बदमाश लड़कों के साथ घूमता है.माँ बोलतीं.आने दीजिये,आज उसको बताउंगी.घर पहुँचने पर डाट सुननी पड़ती.ननिहाल होने का मुझे भरपूर फायदा मिलता.क्योंकि मेरी नानी मेरे लिए 'कोतवाल' सरीखा थी. 
लोग बहुत प्यार करते.लेकिन मेरी बदमाशियों को 'माँ' तक जरुर पहुँचाते.गाँव के सर्वाधिक भू-भाग पर बनियों का ही कब्ज़ा था.सर्वाधिक संसाधन उनके पास थे.सिंचाई के साधन तो थे,लेकिन जमीन ऊसर हुआ करती थी.जो पानी खेतों में इकठ्ठा होता उसका रंग मटमैला होता.जाड़े और गर्मियों में बहुत सारे लोग अपने खेतों से 'रेह' उठाने के लिए धोबियों को देते,बदले में उनसे पर लादी (बोरी) पैसे लेते.नाना के पास जो जमीन थी,उनमें से एक बीघे में 'रेह' होता था.हम लोग धोबियों को देखते ही उन्हें पकड़ लेते.खेत पर ले जाते.धोबी खेतों से 'रेह' निकालते हम लोग 'गदहों' को दौड़ते,उनसे खेलते.धोबियों के मना करने का हम पर कोई असर न होता.जो पैसा मिलता,उससे हमलोग लमचुस खरीदकर खाते,अब इसे बाज़ार में 'लाली पॉप'  के नाम से जाना जाता है.
हमारी एक दोस्त थी,सरिता.हम दोनों पूरे दिन और देर रात तक एक साथ होते.हमारे बचपन की धमाचौकड़ी एक साथ होती.हम अपनी गाय,उसकी भैंसों के साथ चराते.गाँव के पश्चिम दिशा में रेलवे लाइन थी.उसी से लगे उसके खेत थे,हम अक्सर उधर ही पशुओं को ले जाते.उसका बड़ा कारण था.रेलवे लाइन के दोनों किनारे खूब हरी-भरी घास होती.पशुयें घास चरने में मस्त और हम सब खेलने में मशगूल.खेल भी गुड्डे-गुड़ियों का.अक्सर हमारे और सरिता के बीच पहले गुड्डे-गुड़ियों की 'शादी' और फिर उनके 'सुहाग रात' को लेकर लड़ाई होती.हम लोग घंटों एक दूसरे से बात नहीं करते.फिर वहीँ ढर्रा चल पड़ता.
जब भी कोई पैसेंजर ट्रेन गुजरती हम लोग देर तक उसे देखते रहते.इस रास्ते से गुजरने वाली ट्रेनों को हमलोग अलग-अलग नामों से पुकारते.मसलन               
'बारह बजहिया','चारबजहिया'. इसका तालुकात १२ बजे और चार बजे से था यानि समय से.इनकी पहचान ट्रेनों के रंग से होती.जिस दिन ट्रेन देर से आती लोग इसका अनुमान लगा लेते.यह ज्ञान हम लोग गाँव के लोगों से ग्रहण किये थे.जो ट्रेनों का बिना नाम पढ़े रंग और समय के आधार पर उनका नामकरण कर देते.जाहिर है ये लोग अपने पूर्वजों से यह विरासत में पाए रहे होंगे.अब सोचता हूँ.रेलवे इस गवईं नामकरण पर कोई शोध नहीं किया होगा.यह ट्रेनें कलकत्ते से आतीं और दिल्ली की तरफ कूच कर जातीं.ट्रेनों के चलने से जो आवाज़ होती,उसे हम लोग दोहराते 'छ-छ पैसा,चल कलकत्ता'- 'छ-छ पैसा,चल कलकत्ता'.नादानी का नमूना देखिये.हम लोग चलती ट्रेनों पर गिट्टी मारते.कभी-कभी उल्टी दिशा में जाते हुए.कभी-कभी अपनी तरफ आते हुए.एक बार इसी शरारत का परिणाम भुगतना पड़ा.सरिता ने अपनी तरफ आती हुयी ट्रेन पर गिट्टी मारी,गिट्टी उसके सिर पर आ लगी.उसी दिन से गिट्टी फेंकना बंद हो गया.यहीं बात जब लोग समझाते तो हम लोग नहीं मानते.चोरी.चोरी फेंकते.                 

शब्दार्थ: 
१.'रेह' :  जो जमीने ऊसर थीं,उसके ऊपर एक सफ़ेद रंग की परत जमती,जिसे गाँव के लोग 'रेह' कहते.वे लोग,इसे धोबियों को देते.धोबी 'रेह' को गदहों पर लाद कर नजदीक के शहर ले जाते.इससे कपड़े धोते.हम लोग भी इसका इस्तेमाल करते.कपड़ा चमक जाता.लेकिन उसकी उम्र कम हो जाती.यह १९७० के दशक का उतरार्द्ध था.       
   
जारी ...

मंगलवार, 22 नवंबर 2011

'बुद्धू' की डायरी का इंतजार...!



आज यानी २१ नवम्बर,२०११ से आप सब के समक्ष
'बुद्धू' की डायरी नाम से एक सीरिज प्रस्तुत करने जा रहा हूँ.
प्रस्तुत डायरी में 'दिन-तारीख और घटनाएँ सिलसिलेवार नहीं दिखेंगी/मिलेंगी.
क्योंकि 'बुद्धू' जी ने इतनी डायरियां लिखी हैं,जिसका एक जगह संग्रह नहीं है.
जैसे-जैसे 'बुद्धू' की डायरी के अंश मिलते जायेगें,वैसे-वैसे उनके जीवन का सच उजागर होता जायेगा.
अब आप सब यह जानना चाहेंगे कि 'बुद्धू' नाम का जीव है क्या ?
तो सुनिए... !
इसके पीछे का इतिहास यह है कि 'बुद्धू' जिस लड़की से मिलता-जुलता,मेल-मिलाप रखता-बढ़ाता,उसकी आँखें-चहरे की भाषा,देह/शरीर का मनोविज्ञान और परिभाषा नहीं समझ पाता,जिसकी वजह से लड़कियाँ उसे 'पढ़े-लिखे बुद्धू' कहकर चिढाती,अक्सर उसकी ज़िन्दगी से दूर चली जातीं थीं.        
'बुद्धू' को इस बात का अहसास बहुत... बाद में होता,तब तक उसकी पूरी दुनिया ही बदल चुकी होती.
इस प्रस्तुति में छंद,भाषा,शिल्प,गठन,प्रवाह और व्याकरण पर ध्यान न दें,सिर्फ और सिर्फ भावरस का रस्सास्वादन करें.
मज़ा आने पर आलोचना आमंत्रित है...        

रविवार, 18 सितंबर 2011

'विज्ञापन' दो,हम आपके पक्ष में 'भोकेंगे'... !


  
कल तक 'अन्ना-अन्ना' चिल्लाने वाला मीडिया.आजकल 'मोदी-मोदी'  चिल्ला रहा है.
तीन दिन के 'उपवास' को "मोदी का नया अवतार" के बतौर प्रसारित-प्रचारित कर रहा है.
उपवास के पूर्व 'माँ' का आशीर्वाद और 'माँ' की तरफ से 'रामचरित मानस' भेंट की तस्वीर को मीडिया ने प्रमुखता से प्रसारित-प्रचारित किया है.
किसी मीडिया ने यह समीक्षा नहीं की कि क्या 'रामचरित मानस' पढ़ने या भेंट करने से 'मोदी' के ऊपर लगे गुजरात देंगे का 'दाग' धुल जायेंगे. 
मोदी को 'उपवास' करने के लिए एक मात्र जगह विश्वविद्यालय ही मिला था.क्या विश्वविद्यालयों को अब राजनैतिक अखाड़े के तौर पर इस्तेमाल किया जायेगा.(कब नहीं किया जाता था)     
विश्वविद्यालयों की अपनी कोई छवि होगी की नहीं.इसकी बची हुई स्वतंत्रतता,निष्पक्षता और निरपेक्षता बरक़रार रहेगी या नहीं(?).
मीडिया जिस तरह से 'मोदी' के 'उपवास' को दिखा रहा है.उसमें एक बात सर्वाधिक खतरनाक यह है की अगले पार्लियामेंट के चुनाव में भारतीय जनता को 'मोदी' और 'राहुल' में से किसी एक को प्रधानमंत्री के तौर पर चुनाव करना है.यानि इन दोनों के आलावा तीसरा कोई विकल्प नहीं है.मतलब जनता  विकल्पहीनता की शिकार है.लोग मीडिया की राय मान लें.मीडिया इसके लिए जनमत तैयार करना शुरू कर दिया है.
सोचता हूँ.जिस व्यक्ति ने मीडिया को "वाच डॉग" (अभी नाम याद नहीं आ रहा है) का नाम दिया होगा.वह कितना दूरदर्शी रहा होगा.परंपरागत सोच है मालिक जब कुत्ते को चारा देता है तो बदले में उससे 'वफ़ादारी' और 'बेहतर' रखवाली की उम्मीद करता है.आज बात मौजूदा मीडिया के चरित्र को लेकर कहा जा सकता है.'विज्ञापन' दीजिये.मीडिया आप के पक्ष में भोंकने के लिए तैयार बैठा है.'मोदी' भी 'विज्ञापन' जारी किये हैं,'फुल पेज' का.जाहिर है फ़र्ज़ निभाना तो पड़ेगा."वाच डॉग" जो ठहरे.यह पूंजीवाद का असली स्वाभाव है.पूंजी बटोरने के लिए और गुजरात में व्यावसायिक लाभ-मुनाफा कमाने के लिए पूंजीपति किसी भी हद तक जाकर समझौता कर सकते हैं.यह 'दर्पण' की तरह साफ है.    
यदि मीडिया इसी तरह से 'कवर' करता रहा तो 'अनशन','उपवास' और गाँधी के अन्य राजनैतिक प्रयोगों को राजनैतिक पार्टियों को इसे 'ढोंग','पाखंड' और 'कर्मकांड' में तब्दील करते देर नहीं लगेगा.इसकी शुरुआत हो चुकी है.
कार बनाने वाली देश की अग्रणी कंपनी मारुती सुजूकी के मानेसर प्लांट के श्रमिक गत २० दिनों से धरने पर बैठे हैं.वे ६२ श्रमिक साथियों को काम पर वापस लेने की मांग पर अड़े हैं.इसे किसी टीवी मीडिया ने खबर बनाने की जहमत नहीं उठाई. 

सोमवार, 29 अगस्त 2011

मीडिया अब 'वाच डॉग' कम,कटहा कुत्ता अधिक !

१. जब मीडिया 'मिशन' की जगह प्रोफेशन / व्यवसाय / व्यापार बन गया है तो उसके ऊपर भी वहीँ नियम लागू होने चाहिए जो एक व्यवसाय जगत के लिए होता है.

२. जब मीडिया की मनमानी पर कोई सवाल उठता है तो वे 'अभिव्यक्ति की आज़ादी' का झंडा लेकर खड़े हो जाते हैं.

३. मीडिया को कोई "सर्वहारा" नहीं चला रहा है.इसे चलाने वाले पूंजीपति हैं.वे कोई देश या राष्ट्र सेवा नहीं कर रहे हैं और न ही वे राष्ट्र भक्त हैं,वे सिर्फ और सिर्फ पूंजी भक्त हैं.उन्हें लाभ का आसार जहाँ दिखेगा,वे वहां तक अपना और पूंजी का विस्तार करेंगे.

४.जग जाहिर है कि पूंजी और बाज़ार का कोई मूल्य या आदर्श नहीं होता,उसका स्वाभाव लाभ कमाना है.लाभ ईमानदारी के रास्ते नहीं,बेईमानी के रास्ते कमाए जाते हैं.

५.जब मीडिया को "चौथा स्तम्भ" कहा जाता है तो इसके साथ उसकी जिम्मेदारी,जवाबदेही, प्रतिबद्धता,मूल्य,आदर्श और "मिशनरी" भावना है.इसीलिए इसे दूसरे पेशे से अलग सम्मान की निगाह से देखा जाता है.

६.आप मीडिया के शिक्षक (राघवेन्द्र जी) हैं और ऐसे कई घटनाओं के गवाह भी हैं,जब मीडिया में रहते हुए मैंने आप से साझा किया था.मीडिया संस्थानों में कार्यरत मीडियाकर्मी को उसके श्रम का पूरा भुगतान क्यों नही होता.श्रम कानून क्यों नहीं लागू होते.

७. मीडिया मालिकानों,राजसत्ता और लालफीताशाही का वह कौन सा गठजोड़ है,जिसका लाभ सिर्फ मालिकानों को मिलता है.

८. मीडिया मालिकान किस आधार पर (ज्ञान) समान योग्यता वालों को अलग-अलग लाभ और वेतन देते है.

९. मीडिया सिर्फ-सिर्फ एक माध्यम है.असली भूमिका तो वो निभाते हैं जो उसका संचालन कर रहे हैं.जाहिर है संचालक जैसा होगा परिणाम भी उसी तरह का निकलेगा.

१०.अब हम मीडिया को लेकर किसी भ्रम में नहीं जीते हैं.मीडिया अब तक जिन सवालों को उठता रहा है,वे सवाल किससे जुड़े रहे हैं...? वह वर्ग कौन सा है. इस पर जरुर विचार होना चाहिए .

११.हम लोग खेत-खलिहान और मड़ई से निकलकर संघर्षों के रास्ते आगे बढ़े हैं.समाज को अपनी नगाहों से देखते हैं,किसी रंगीले चश्में से नहीं....

१२. अब नज़रें धोखा नहीं खातीं हैं .....

१३. पूंजीवाद का चरित्र पानी पर फैले तेल की तरह है.

१४ .मेरा विचार है मीडिया को भी 'लोकपाल' के दायरे में आना चाहिए क्योंकि मीडिया अब बहुत से मामलों में 'वाच डॉग' नहीं,कटहा कुत्ता हो गया है....!

१५.मीडिया में आम आदमी कहाँ है.जल,जंगल,जमीन के लिए संघर्षरत लोग कहाँ स्पेस पाते हैं..?

१६. आदिवासी,दलित,पिछड़े और अल्पसंख्यक मीडिया में कहाँ हैं...? मीडिया संस्थानों में किस वर्ग की अधिकता है.

१७.मीडिया संस्थानों में निर्णय लेने वाले कौन लोग हैं,वे किस जमात से आते हैं.वे किसके हितों का संरक्षण करते हैं ...?

१८.टीवी और अखबारों में जो विज्ञापन दिखाए और प्रकाशित किये जाते हैं,उसकी प्रमाणिकता की जाँच कौन करता है.यह जनता में सपन दिखा कर किसको लूटते हैं.

१९.मीडिया को नेताओं के 'पीकदान' से कब मुक्ति मिलेगी.'पैड न्यूज़' की बदौलत कब तक मीडिया मन पसंद लोगों का छवि निर्माण करेगा और बाकियों को नंगा....

२०. इन सवालों का जवाब भी तो मीडिया संस्थानों से ही मिलने चाहिए.हमें किसी को फ़रिश्ता-भगवान मानने से इंकार करने की साहस दिखाने होगी.

गुरुवार, 9 जून 2011

कट्टरता कला का विकल्प नहीं

प्रख्यात चित्रकार एम एफ हुसैन अब हमारे बीच नहीं रहे. न केवल हमारे बल्कि दुनिया के मुल्कों के कला जगत में हुई इस रिक्तता शायद ही कभी भर पाए. अपनी कुछ चित्रों की वजह से हमेशा विवादों में रहे हुसैन साहब को अंततः मुठ्ठी भर कट्टरवादी ताकतों की वजह से दुसरे मुल्क में शरण लेनी पड़ी थीं.उनके विरोधियों को समझना चाहिए कि दुनिया में कट्टरता कभी भी कला का विकल्प नहीं बन सकता है भारत उनके मन -मिजाज़ में इस कदर बैठा था कि कभी भी वे इसे अपने दिल से अलग नहीं कर सके.भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश होने का दावा करता है लेकिन हुसैन साहेब के मामले में इसे प्रमाणित नहीं कर सका.वे एक प्रगतिशील कला के वाहक थे. भारत का कला जगत उनसे बहुत कुछ हासिल कर सकता था.लेकिन ऐसा हो न सका. कला की नई पीढ़ी से उम्मीद है कि वे न केवल निरंतर उनकी कला को जिंदा रखेगी बल्कि उसे आगे भी बढ़ाएगी

तमाम कट्टरवादी ताकतों के विरोध के वावजूद एम एफ हुसैन इस मुल्क के धरोहर के रूप सदा याद किये जायेंगे.अपनी कला के मार्फ़त वे हमारे दिलों-दिमाग में हमेशा जिंदा रहेंगे.अपने युग में अपने तरह के अलग कला के इस प्रगतिशील कला नायक को मेरी तरफ से SHRADHANJALI...!

रविवार, 5 जून 2011

दिल्ली के दामन पर दमन का दाग

इस देश में गाँधी भी हमीं हैं,गोडसे भी हमीं हैं,सिर्फ हमीं गाँधीवादी हैं.

महात्मा गाँधी पर सिर्फ और सिर्फ हमारा प्रापर्टी-कॉपी राइट है.

गाँधी के आदर्शों पर सिर्फ हमें चलने का हक-अधिकार है.बाकियों को नहीं,या फिर हम जिसे लाइसेंस दें.

हम जहाँ कहीं भी,जिस किसी के खिलाफ आन्दोलन करेंगे वह सत्याग्रह माना जाएगा.बाकियों का नहीं.

सिर्फ हमीं अहिंसा के रास्ते पर चल सकते हैं,यदि दूसरे चलेंगे तो अराजकतावादी कहलायेंगे.

नैतिकता के असली वारिश (असल में ठेकेदार) हमीं हैं,बाकी सब तो अनैतिक हैं.

सिर्फ हमीं सत्य बोलते हैं,बाकी सब तो असत्य के पुजारी हैं.

हमारा साधन और साध्य हमेशा पवित्र और गाँधीवादी रहा है.बाकियों का अपवित्र और छलावा है.

सिर्फ हमीं 'स्वराज' ला सकते हैं,बाकी तो 'लूट-खसोट का राज' स्थापित करना चाहते हैं.

हमीं हैं जो हरेक आँख से हरेक आंसू पोछ सकते हैं,बाकी सब तो आंसू बहाना जानते हैं.

सिर्फ हमीं धर्मनिरपेक्ष हैं,बाकी तो धर्म का धंधा करते हैं.

इस देश पर शासन-सत्ता का सिर्फ हमारा हक और अधिकार है.बाकियों का नहीं.भूल गए क्या...!

अंग्रेजों से आजादी भी हमीं ने दिलवाई,देश पर चालीस साल से अधिक सत्ता पर काबिज भी हमीं रहे.

इस देश को और देश की जनता की गाढ़ी कमाई को लूटकर विदेशी बैंकों में जमा काला धन हमारा ही है.

इसलिए यहाँ की भोली-भाली जनता को लूटने का हक और अधिकार सिर्फ और सिर्फ हमारा है,

इसका अनुभव भी हमारे पास है,बाकियों ने तो जनता को गुमराह किया है.

गाँधी के सत्याग्रह,अहिंसा और बंधुत्व-भाईचारा का पालक सिर्फ हमीं हैं.

जन के मन पर राज करने का हक सिर्फ हमारा है.

आपातकाल के नायक भी हमीं हैं,लोकतंत्र के पोषक भी हमीं हैं,बाकी तो अलोकतांत्रिक हैं .

हम खतरे में हैं तो हमारी कुर्सी खतरे में है,जब कुर्सी खतरे में है तो लोकतंत्र खतरे में.

दाता भी हमीं हैं,दानव भी हमीं हैं.राम भी हमीं हैं, रावण भी हमीं हैं.

दमन भी हमीं करते हैं,धवल दामन भी हमारा ही है.दिल्ली के दामन पर दमन का दाग भी हमारा है...


रविवार, 8 मई 2011

'मां' पर 'कविता' लिखो ...!


'मां' पर 'कविता' लिखो ...!
'मदर्स डे' को लेकर हमारा अलग विचार हैं. मेरी एक दोस्त ने कहा 'मां' पर एक "कविता" लिखो.
मैं कल से उसे टहला रहा हूँ. लेकिन वो भी कम नहीं.कल से ही फोन कर-कर के उपद्रव मचा दिया है.
मैं उसे बहुत समझाने का प्रयास किया क़ी मेरा इस 'मदर्स डे' को लेकर मतभेद है.वो भी कमतर नहीं,
उसने मुझे एक सन्देश भेजा, लिखा- तुम स्वार्थी हो, मतलबी हो,धोखेबाज़ हो,मौकापरस्त हो, झूठे हो, फरेबी हो.
वैसे लिखते रहते हो जब "मां" पर लिखने क़ी बारी आती है तो कुतर्क देते हो और भी पता नहीं क्या-क्या इलज़ाम लगाया.
उसके शब्दों के 'वार' को झेलने के लिए जरुरी है, झेलने वाले दिल का होना.उसके धक्का मारने पर 'मां' पर कुछ लिख रहा
हूँ, लेकिन यह अंतिम नहीं है, ये शुरुआत है, भविष्य में इसे विस्तार दूंगा ...

एक
'मां' का 'आँचल'
अपने समय में मेरी 'मां' बला की खूबसूरत रहीं.जिस रास्ते से गुजरतीं लोग उन्हें मुंड-मुंड कर दूर तक देखते रहते.
लगता है, इसीलिए नाना-नानी ने उनका नाम रखा "गुलाबी".बचपन में 'मां' का 'आँचल' पकड़ कर दिन भर उनके
पीछे -पीछे घुमना आज भी याद हैं.संयुक्त परिवार था.पिता जी ६ भाइयों और दो बहनों में सबसे बड़े थे.दादा -दादी
को व्यवहार के मामले में हिटलर के आस-पास ही पाता हूँ. मौसम चाहे जो भी हो, 'मां' का आँचल ही मेरा सब कुछ था.चाचा
लोग मुझे बहुत चिढ़ाते थे.कभी.कभी तंग आकर 'मां' मेरी पिटाई भी कर देतीं और खुद भी रोनें लगतीं.फिर भी मैं उनसे
अलग न होता. अंततः हार मान कर चुप हो जातीं.बचपन में जब लोग मजाक में 'मां' के 'आँचल' से अलग करते, मैं चीख पड़ता,
आज मैं 'मां' से कितना दूर हूँ ,बहुत दूर,'मां' गाँव, मैं दिल्ली ...
दो
ममता और अनुशासन का पलड़ा बराबर
'मां' क़ी पिटाई आज भी याद है. 'मां' के व्यवहार में कांचन क़ी कठोरता और कमल पुष्प क़ी कोमलता का दर्शन मिलता है.
मेरी बचपन क़ी बदमाशियों को उन्होंने आमतौर पर अनदेखी कीं. लेकिन जब शिकायत घर तक पहुंचती तो कभी माफ़ नहीं
किया.हमें याद आता है. संभवतः मैं कक्षा एक में था. नानी गाँव गया था.एक दिन कुन्नन साव (गाँव के जमींदार) के बागीचा
में हम बच्चों ने एक पेंड़ के पास आग लगा दी.मौसम सर्दी का था. कुन्नन साव शिकायत लेकर घर पहुंचे.'मां' उन्हें चाचा कहकर
बुलाती थीं.संयोग ख़राब था. मैं भी उसी समय पहुँचा.'मां' ने मुझे दौड़ाया. मैं भागा.रास्ते में पड़ोस का मामा गाय बंधाने के लिए खूंटा
गाड़ रहा था.'मां' ने उसके हाथ से खूंटा छीन कर मेरी बहुत पिटाई क़ी.उस दिन मैं बहुत रोया.मुझे देख कर जब पड़ोस क़ी मामी ने
'मां' को डाटा तब जाकर मुझे ले आयीं और समझाते हुए खुद भी रोने लगीं....

तीन
विद्रोह का ककहरा
'मां' बहुत विद्रोही स्वाभाव क़ी रही हैं.जितना नरम, उतनी हठी भी और जिद्दी.जो ठान लेती हैं,उसे करके दम लेतीं हैं.
पहले ही बता चुका हूँ. अपने दादा -दादी को व्यवहार के मामले में हिटलर के आस-पास ही पाता हूँ.'मां' हर तरह के उत्पीड़न
का मुखर विरोध करती रही हैं.संयुक्त परिवार क़ी अपनी खूबियाँ और कमजोरियां होती हैं.'मां' संयुक्त परिवार क़ी प्रतिबद्धताओं
से इस कदर बधीं थीं क़ी हमेशा व्यक्तिगत हित का बलिदान किया.हमने विद्रोह का ककहरा 'मां' से सीखा. मेरा परिवार सामंती
मानसिकता का रहा है. 'मां' क़ी बहुत सारी खूबियाँ मेरे में भी प्राकृतिक तौर पर स्थानांतरित हुई हैं...
चार
सीआईए भी से तेज थी मां- नानी की ख़ुफ़िया एजेंसी
बचपन का एक बड़ा हिस्सा 'नानी' गाँव में बिता है. गाँव में पढ़ने -लिखने का माहौल नहीं था.
मेरे घर के ठीक सामने एक लड़की थी. जाते ही उससे मेरी दोस्ती हो गयी थी.मई सोचता सारे
बच्चे खेलते हैं. गाय-भैस चरते हैं और मुझे स्कूल भेजा जाता है.मैं भी काम नहीं था.झोला किसी
कोने में रख कर धीरे से अपने दोस्त के साथ निकल जाता. आमतौर से वो मुझे लेने भी आ जाती.
किसी काम से जब 'मां' घर के उस कोने में जातीं.झोला देखा कर 'नानी' से पूछतीं.नानी को समझते
देर न लगता.'नानी' की ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए से भी तेज थी.'नानी' एक हाथ में मेरा झोला लिए,
दूसरे में 'डंडा' मेरे ठिकाने पर पहुँच जाती और दूर से ही आवाज़ देतीं.मैं चौकन्ना हो जाता.'नानी'
मेरा झोला कुछ दूर पर रखकर लगती धमकाने.मैं सतर्क, डरते-डरते झोला उठता और स्कूल के
रास्ते तेज भागता. 'नानी' इतने भर से ही नहीं मानती.मैं आगे-आगे 'नानी' मेरे पीछे -पीछे.एक किलोमीटर
तक जातीं. जब उन्गें पूरा यकीं हो जाता क़ी अब वापस नहीं आएगा.तभी घर लौटतीं.'नानी' में एक खूबी थीं
मारती नहीं थीं.जब 'मां' मारती थीं तो 'नानी' उनसे लड़ पड़ती थीं.नानी अब इस दुनियां में नहीं रहीं लेकिन उनकी यादें
आज भी फ्लैश बैक में जिन्दा हैं.....
पाँच
'गुलाबी समय'
एक दिन एक सपना देखा.गुलाबी और सुन्दर.अनुकूल संभावनाओं से परिपूर्ण और उज्जवल.
'संघर्ष,सृजन और फौलादी संकल्पों क़ी धनी मां' ने सामर्थ्य के अनुसार जो बना, सब दिया.मेरे अन्दर
पढ़ने और लड़ने क़ी ललक पैदा कीं 'मां' के ऋण को तो मैं ताउम्र नहीं भर सकता.लेकिन उनके लिए तोहफे
में एक घर बनवा कर दे रहा हूँ, गाँव से दूर,खेत में.घर का 80 फीसदी काम हो गया है. 2012 में तैयार हो जायेगा.
घर का नाम रखा है 'गुलाबी समय'. उम्मीद है 'मां' आप को और 'पिता' जी को पसंद आएगा....

और अंत में दरअसल जो लिखना चाहता था, वह लिख नहीं पाया...!

गुरुवार, 5 मई 2011

बलुहट मिट्टी में तब्दील होती 'ज्ञान गंगा' !

बलुहट मिट्टी में तब्दील होती 'ज्ञान गंगा' !
एक दिन 'जन-जन' का विश्वविद्यालय के छात्रों ने
एक दिन किसानों की 'आत्महत्या' पर बनी 'मराठी'
फिल्म 'शो' आयोजित की.फिल्म की विषय-वस्तु और
किसानों की समस्या पर परिचर्चा के लिए छात्रों ने
दो हमदर्द शिक्षकों को आमंत्रित किया.
बताया जाता है कि दोनों शिक्षक छात्रों से कुछ ज्यादा
ही लगाव रखते हैं. वे कुछ कमजोर आदतों के शिकार
भी हैं. मसलन- 'क्लास रूम' के अलावा छात्रों से ढाबे पर,
राह चलते, पुस्तकालय में परिचर्चा करना,साथ में चाय
पीना,कभी-कभी दोपहर का भोजन करना आदि-इत्यादी.
'फिल्म शो' के बारे में विस्तृत व गंभीर सन्देश देने के उद्येश्य
से छात्रों ने 'The Hindu' में प्रकाशित केशव के कार्टून के साथ
एक शिक्षक के नाम का उल्लेख करते हुए जगह-जगह पोस्टर
लगा दिया. कई दिनों बाद ये सूचना 'जन-जन' का विश्वविद्यालय
के सह मुखिया पास पहुंची. सह-मुखिया ने शिक्षक के स्कूल के
मुखिया को अपनी दरबार में हाजिर होने के लिए मोबाइल फरमान
जारी किया. स्कूल मुखिया को लगा की शिक्षक ने कोई बड़ा 'अपराध'
किया है. सो, स्कूल मुखिया ने शिक्षक को भी सह-मुखिया के दरबार में
आने के लिए 'मोबाइल फरमान' जारी किया. सह-मुखिया के दरबार
में 'फिल्म शो' के बारे में जब बात चली तो स्कूल मुखिया आदत के अनुसार
ने पूरे मामले से पल्ला झाड़ लिया.अंततः तर्क-वितर्क पर कुतर्क भारी पड़ा,
भविष्य में अनुमति लिए वगैर इस तरह के कार्यक्रम में भाग न लेने और
आयोजित न करने के लिए शिक्षक को 'माउथ फतवा' जारी किया गया.
एक दिन बाद 'फिल्म शो' आयोजित करने वाले छात्रों को जब इस बात
का पता चला तो उनका पहला कमेन्ट था क़ि यह तो 'जन-जन' का विश्वविद्यालय
है. यदि यहाँ जन -जन के मुद्दों पर परिचर्चा नहीं होगी तो कहाँ होगी.
एक छात्र का तर्क कि जब देश के प्रधानमंत्री अपने आवास पर "पीपली लाइव" फिल्म
देख सकते हैं, जो राजव्यवस्था और मीडिया पर सीधे सवाल उठती है, तो क्या किसानों
की समस्या पर बनी फ़िल्में विश्वविद्यालय में नहीं देखी -दिखायी जा सकती.
दूसरे छात्र ने कहा भाई कहाँ वो प्रधानमंत्री, कहाँ ये 'जन-जन' का विश्वविद्यालय (?)
तीसरे छात्र ने दुष्यंत कुमार की एक पंक्ति दुहरायी-
" मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूँ पर कहता नहीं,
बोलना भी है मना, सच बोलना तो दर किनार "
मंद -मंद मुस्करा रहा, चौथे छात्र ने कहा लगता है. इस फतवे के बाद अब शिक्षक
महोदय 'जैन मुनियों' की तरह मुंह पर सफ़ेद पट्टी बांधे हूँ -हाँ, गूं- गां करते नजर
आयेंगे. पांचवां छात्र जो स्वाभाव और विचार से गरम है, ने दुष्यंत कुमार की एक पंक्ति
का सहारा लेकर कहा कि-
''रहनुमाओं की अदाओं पर फ़िदा है दुनिया,
इस बहकती हुई दुनिया को सम्भालों यारों ''
कुल मिलकर लगता है आधुनिक विश्वविद्यालय अकादमिक विरोधाभास के शिकार होते जा रहे हैं.
जो स्पेस अकादमिक गति-विज्ञान के लिए था अब उसे नौकरशाही-सामंती मानसिकता से ग्रसित कुछई
नये किस्म के आगंतुक जीव-जन्तू कर रहे हैं. अब विश्वविद्यालय आधुनिक ज्ञान -विज्ञान और सम्पूर्ण
विकास के केंद्र होने का सिर्फ दावा भर करते हैं. परिवर्तन का नायक बनने की क्षमता का अब दिनों क्षरण
हो रहा है. परिसरों क़ी अकादमिक जमीन दिनों-दिन बंजर होती जा रही है. प्रगतिशील पर्यावरण पर संकट
बढ़ता जा रहा है. सहमति और असहमति का फासला 'मत भेद' क़ी जगह 'मन भेद' का स्वरुप अख्तियार करता
जा रहा है. बदला लेने की नयी प्रवृति का जन्म हुआ है. लगता है विश्वविद्यालयों से बहने वाली 'ज्ञान गंगा' निरंतर
बलुहट मिट्टी में तब्दील होती जा रही हैं. और अंत में फैज़ साहेब याद आते हैं -
यूँ ही हमेशा उलझती रही है जुल्म से खल्क,
न उनकी रस्म नयी है, न अपनी रीत नयी है,
यूँ ही हमेशा खिलाए हैं हमने आग में फूल
न उनकी हार नयी है न अपनी जीत नयी है.
फ़िलहाल तो यही है.....




बुधवार, 4 मई 2011

श्रद्धांजलि...!

श्रद्धांजलि...!
मैं भारत हूँ .
मेरे में समाहित है पूरी दुनिया और हम पूरी दुनिया में.
मेरे एक हाथ में परमाडु बम है और दूसरे में कटोरा.
मैं दुनिया में आर्थिक शक्ति बनने के लिए कसरत रत हूँ.
मेरा दबदबा विज्ञान और टेक्नोलोजी के क्षेत्र में भी है.
मेरे फेहरिस्त में नंगे -भूखों की संख्या अधिक है तो क्या हुआ
मेरे पास मुठ्ठी भर पूंजीपति भी तो हैं,
करोड़ों लोगों के पास झोपड़ी नहीं है तो क्या हुआ,
मेरे प्राकृतिक सम्पदा और आर्थिक स्रोतों पर गिने -चुने लोगों का कब्ज़ा-अधिकार तो है.
मैं भारत हूँ...
मेरे में समाहित है 'अरुणाचल'
मेरे पास सब कुछ है...(?)
पर माफ़ करना 'दोरजी खांडू'
हम तुम्हें और तुम्हारे सहयोगियों को ४-५ दिन तक खोज न सके.
और जब तुम तक पहुंचे तो मिली तुम्हारी ...
माफ़ करना, हम तुम्हें बचाने में असफल रहे.
मौसम ख़राब होने की वजह से 'सर्च' नहीं कर सका.
कोई बात नहीं, तुम्हारा अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ किया जायेगा.
गर्व करो भारत महान है.
हाँ चलते -चलते एक बात और
भारत के चैनेल्स और अखबार तुम्हारा 'लाइव कवरेज' नहीं दे सके, आँध्रप्रदेश के EX. C.M. की तरह.
सभी चैनेल्स 'ओबामा -ओसामा' में बीजी थे.
माफ़ करना 'खांडू' T.R.P. का सवाल था....(?)
मेरी तरफ से तुम्हें और तुम्हारे सहयोगियों को अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि...!

रविवार, 1 मई 2011

मीडिया, महंत और मायाजाल ...?

मीडिया, महंत और मायाजाल ...?

मीडिया कर्मियों से उम्मीद की जाती है कि वे किसी भी ख़बर को सही,सटीक
निष्पक्ष,निर्भीक और वैज्ञानिक कसौटी पर रिपोर्ट करेंगे.
मीडिया शिक्षण के क्षेत्र में भी मीडिया कर्मी को आँख, नाक, कान,
दिल, दिमाग और दृष्टि खुली रखने के लिए ढेर सारे उपदेश दिए जाते हैं.
मीडिया के व्यवहारिक-व्यावसायिक जीवन में इसका अकाल है.
उदाहरण के तौर पर मौजूदा मीडिया को देखा जा सकता हैं.
भारतीय मीडिया में इस मसले पर संकट है.
यहाँ आस्था को सबसे ऊपर माना जाता है.
वैज्ञानिक रिपोर्टिंग को भारतीय मीडिया में
अपमान के तौर पर देखा जाता है.
मान लीजिये, आप किसी मीडिया संस्थान में रिपोर्टर-पत्रकार हैं,
विचार से वैज्ञानिक सोच रखते हैं.
किसी धार्मिक कार्यक्रम क़ी रिपोर्टिंग के लिए आपको भेजा गया.
आपको किसी बाबा,स्वामी पुजारी,साधू -संत के खिलाफ कोई ऐसी जानकारी मिली
जो अनैतिक है.आपने ख़बर भी लिख दी,
पता चला आपका वरिष्ठ,समाचार संपादक,
संपादक या फिर संस्थान का मालिक सम्बंधित संत,
महंत या महात्मा का अंध भक्त है.
आपक़ी खबर सही है, उसका सामाजिक सरोकार भी है.
लेकिन वो प्रकाशित-प्रसारित नहीं होगी.
क्योंकि आपने ये ख़बर लिखकर उनके ईश्वर का अनादर-अपमान किया है.
संभव है आपको संस्थान से निकाल भी दिया जाये.
क्योंकि आपने अपने मालिक के ईश्वर का महिमामंडन क़ी जगह उसके खिलाफ
लिखने क़ी दुस्साहस क़ी है, जिसके आशीर्वाद से मालिकान का धंधा (काला)
चल रहा है. आपके खून-पसीने से सने मेहनत- श्रम से उसे क्या लेना देना.
क्योंकि आप ईश्वर नहीं हैं.बाबा,स्वामी, पुजारी,साधू -संत ,
महंत या महात्मा नहीं हैं. आप सिर्फ एक रिपोर्टर-पत्रकार हैं.
मीडिया में ये माहौल क्यों हैं...?
उसका बड़ा कारण है, एक ऐसे वर्ग (भारतीय सन्दर्भ में जाति)
का मीडिया में वर्चस्व जो लम्बे समय से इस खेल में शामिल है.
अब वह बरगद का सोर (जड़) बन चुका है.
कमंडलधारी, राम-नामी दुपट्टा टांगे-ओढ़े, यह वर्ग मीडिया के रास्ते लोगों में
पाखंड, अंध विश्वास और धर्म -कर्म का ऐसा बीजारोपण किया है,
जिसके फसल को अब बाज़ार काट रहा है.
अब मंदिर,मठ,मस्जिद,गुरूद्वारे और चर्च जाने क़ी जरुरत नहीं है.
सुबह उठकर 'इन्टरनेट ऑन' कीजिये भगवान-ईश्वर आपके सामने...?
अब दर्शन-प्रसाद अपने स्क्रीन पर पाइए,पंडित.पुजारी,पादरी, मौलाना,
धर्म गुरु के दर का चक्कर लगाने क़ी जरुरत क्या है ...?
बाज़ार ने इनका काम तमाम कार दिया है...?
भारतीय मीडिया में भी एक वैज्ञानिक परिवर्तन क़ी जरुरत है ..
उम्मीद है नई पीढ़ी इस दिशा में जरुर कुछ करेगी.
मीडिया संस्थानों को भी क्यों न 'जन लोकपाल' के अंतर्गत लाया जाये...?
मीडिया और महंतों के 'मायाजाल' पर भी समाज को "महाजाल" डालने क़ी जरुरत है...?

नोट: Mr. Ritesh ठाकुर (स्टुडेंट, EMPM) द्वारा fb.पर, 'Sai Baba Tricks Courmpletely Exposed' Video देखने के लिए बार-बार प्रेरित करने के बाद यह कमेन्ट किया गया है.
मुझे उकसाने के लिए रितेश को क्या कहा जाये ये, आप सब पर छोड़ता हूँ ...?

शनिवार, 30 अप्रैल 2011

खूबियों के सहारे चैनल का नाम बताने की चनौती ...?


1. लीक से हटकर,पॉलिशदार,संयमित,ग्लैमर,

भोजन,खेल, राष्ट्रीय -अंतर्राष्ट्रीय खबरों की प्रस्तुति...

2. चिट-चिट,कीट-कीट मिश्रित,सरकारी महिमामंडन,

उदास और बेरुखे खबरों की प्रस्तुति ...

3. भूत-परेत, ओझैती-सोखैती, नाग-नागिन,

हरार से भरपूर चासनीदार खबरों की प्रस्तुति ...

4. आक्रामक अंदाज़, डंके की चोट पर, शब्द -संवाद

में धार,कभी-कभी किसी खास विचारधारा का घोल,

जरुरत से अधिक खिंचाव और किसी के मुंह में अपना

शब्द-विचार डालकर निकाल लेने की कला..

5. मालिकान के भविष्य के भविष्य को बेहतर

बनाने बनाना और कभी सत्ता के आगे कभी सत्ता

के पीछे चलने की फितरत...

6. पीपली लाइव दिखा चुका है, मैं क्या लिखूं...?


बुधवार, 27 अप्रैल 2011

सर! कैमरा चाहिए, वाहन है...?

सर! कैमरा चाहिए, वाहन है...?
कल्पना कीजिये आप नीति निर्माता हैं...?
इलेक्ट्रोनिक मीडिया स्टुडेंट्स को कैमरा देने के लिए आपको नियम बनानें हैं.
स्टुडेंट्स के लिए 'इलेक्ट्रोनिक मीडिया लैब' बनाया गया है.
स्टुडेंट्स को प्रोजेक्ट वर्क दिए गए हैं.
प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए 'आउट डोर' शूटिंग भी करनी होगी.
इसके लिए कैमरा अनिवार्य है.क्लास में कुल २५ स्टुडेंट्स हैं.
कुल कैमरे की संख्या ४ है.
स्टुडेंट्स को कैमरे देने के लिए आपने जो नियम बनाया ओ इस प्रकार है -

नियम No. 1 : कैमरे तभी मिलेंगे जब शिक्षक स्टुडेंट्स के शपथ पत्र पर अनुमति प्रदान करेंगे.
नियम No. 2 : 'आउट डोर' शूटिंग के लिए कैमरे तभी मिलेंगे जब आपके पास ३ पहिया वाहन हो.
नियम No. 3 : सभी स्टुडेंट्स को सुबह १० बजे कैमरे स्वीकृत कराने होंगे और सायं ५.३० बजे वापस जमा करना होगा है.
नियम No. 4 : मन लीजिये स्टुडेंट्स को नोएड में शूटिंग करनी है और इसमें ५ बज गए हैं.
नियम No. 5 : अब उन्हें वापस 'लैब' में ५.३० बजे तक वापस कैमरा जमा करना अनिवार्य है.
नियम No. 6 : 'लैब' तकनीशियन कैमरा जमा कराने के लिए स्टुडेंट्स का इंतजार कर रहा है.
नियम No. 7 : मान लीजिये स्टुडेंट्स और 'लैब' तकनीशियन दोनों ग़ाज़ियाबाद में ही रहते हैं. (सही निर्णय क्या होगा )

क्या आप उक्त नियमों पर अपनी स्वीकृति देंगे...?

विकल्प: यदि स्टुडेंट्स की 'आउट डोर' शूटिंग है और पूरे वर्क में तीन दिन लगेंगे तो क्यों न उन्हें
३ दिन के लिए कैमरे दे दिए जाएँ और अंतिम दिन ५.३० बजे जमा करने के लिए कहा जाये.

सवाल कुछ हट कर:

१. क्या इस देश में बहुसंख्यक गर्भवती महिलाओं को प्रसव के दौरान अस्पताल तक जाने के लिए वाहन नहीं मिल पाते हैं ...?
२. तुगलकी फरमान किस लिए जाना जाता है और इसके साथ किसका नाम जुड़ा है...?

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

खिचड़ी-खीर का स्वाद...

रिश्ते...!
उगते -डूबते सूरज,
चलती-बहती हवा,
बनते -बदलते मौसम,
खिचड़ी-खीर का स्वाद,
संभावना -संवेदना की चाहत,
स्वार्थों के सन्दर्भों में सजा,
कभी बंजर-परती खेत,
कभी सिंचित उपजाऊ जमीन सरीखा,
और भी पता नहीं क्या-क्या...?
अंततः ये रिश्ते हैं, रिश्तों का क्या...?

शनिवार, 16 अप्रैल 2011

गंगा तुम बहती हो क्यूँ

गंगा तुम बहती हो क्यूँ

विस्तार है अपर प्रजा दोनों पर

करें हाहा:कार नि:शब्द सदा ओ गंगा तुम गंगा बहती हो क्यूँ

नैतिकता नष्ट हुई मानवता भ्रष्ट हुई

निर्लज भाव से बहती हो क्यूँ इतिहास की पुकार करे हूंकार

ओ गंगा की धार निर्बल जन को

सबल संग्रामी समग्रो गामी बनाती नहीं हो क्यूँ

अनपढ़ जन अक्षरहीन अनगिन जन खाद्य विहीन

नेत्र विहीन दिख मौन हो क्यूँ

इतिहास की पुकार करे हूंकार

ओ गंगा की धार निर्बल जन को

सबल संग्रामी समग्रो गामी बनाती नहीं हो क्यूँ

व्यक्ति रहे व्यक्ति केन्द्रित सकल समाज व्यक्तित्व रहित

निष्प्राण समाज को तोड़ती न क्यूँ

इतिहास की पुकार...

श्रतस्वीनी क्यूँ न रही तुम निश्चय

चेतन नहीं प्राणों में प्रेरणा देती न क्यूँ

उन्मद अबनी कुरुक्षेत्र बनी

गंगे जननी नव भारत में

भीष्मरूपी सुतसमर जयी

जनती नहीं हो क्यों.

-भूपेन हजारिका


गंगा बहुतों के लिए जीवनदायनी और मोक्षदायनी हैं

लेकिन बहुतों के लिए चरने- खाने का केंद्र भी.

गंगा के नाम पर लूटने-खाने वालों की बढती जमात और

गंगा सेवा के नाम पर रोज़ नई -नई खुलती दुकानें

फिर भी सुखती गंगा, दुखती गंगा, गंगा की बढती दुर्दशा पर

आज भूपेन हजारिका जी की याद आ गयी.



शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

'पलटन' ने पलटा 'इग्नू' का इतिहास

इग्नू के नियमित छात्रों का कला समूह 'पलटन' आज "अंधेर नगरी चौपट राजा..."
नाटक का प्रस्तुति किया. कलात्मक अभियान, मेहनत, लगन और सृजनात्मक सोच के जरिये
'पलटन', इग्नू के इतिहास को पलटने और यहाँ फैले सांस्कृतिक सन्नाटे को तोड़ने में कामयाब रहा.
पहली बार किसी नाटक को देखने के लिए इग्नू सभागार दर्शकों से खचाखच भरा था.
कलाकारों ने अमेरिकी विस्तार, मॉल ,शिक्षा के बाजारीकरण और राजसत्ता के जनविरोधी नीतियों पर गंभीर चोट किया.
नाटक में कई ऐसे संवाद रहे जो मौजूदा सरकार के 'मुखिया' की भूमिका पर सवाल उठाते हैं.
यह नाटक आस-पास के माहौल को भी अपने चपेट में लिया.इस संकेत को कलाकार जरुर समझ रहे होंगे.
उम्मीद है देखने वाले अपने कार्यशैली में बदलाव करने का प्रयास करेंगे, तब शायद यह नाटक और सफल होगा.
इग्नू के सुनहरे पन्नों पर नई इबारत लिखने के लिए 'पलटन' के सभी कलाकारों को मेरी तरफ से शुभकामनाएं..!

शुक्रवार, 25 मार्च 2011

दिल्ली... !

दिल्ली... !
आखिर तुम हो क्यों ...?
तुम हो क्या...?
तुम्हारा अपना है क्या ?
तुम्हारे पास आती है-
वर्षा बंगाल की खाड़ी से
सर्दी हिमाचल और जम्मू -कश्मीर से
गर्मी राजस्थान से
पीने का पानी पड़ोसी राज्यों से
सब्जियां पड़ोसी राज्यों से
फल पड़ोसी राज्यों से
दूध पड़ोसी राज्यों से
कपड़े बहार से
श्रमिक दूसरे राज्यों से
पत्रकार दूसरे राज्यों से
शिक्षक दूसरे राज्यों से
प्रधानमंत्री दूसरे राज्यों से
राष्ट्रपति दूसरे राज्यों से
कभी तुम उत्तर प्रदेश,बिहार, झारखण्ड के बोझ से दब जाती हो
कभी पूरे देश को दबा देती हो
तुम्हारी मिटटी में कौन सा गुण है
लोग गाँव से चलते हैं पाक-साफ
तुम्हारे गोंद में आते ही बन जाते हैं नापाक
जिनके सहारे पहनते हैं स्वर्ण मुकुट
उन्हीं को लूटते हैं, उन्हीं को छलते हैं
जनता के हिस्से का करोड़ों डकार जाते हैं
फिर भी बने रहते हैं रहनुमा
बता तुम्हारे दिखावे में भी कितनी अदा है, अद्भुत कला
तुम्हारा दिल कितना निरंकुश, निष्ठुर, निर्दयी, निर्मम है
तुम्मारे दमन पर लगे हैं कितने दाग
तुम्हारा बाजारू मिजाज़
सत्ता, स्वार्थ,संवेदनहीनता, सरपरस्ती पर है टिका
दिल्ली..!
तुम कभी दुल्हन लगाती हो, कभी विधवा
कभी शिकार होती हो, कभी करती हो
तुम्हारे हवा के रुख से ही देश का ईमानदार आदमी
बन जाता है बेईमान
तुम्हारे अन्दर से निकलने वाली नदियाँ
सुख जाती हैं, टेल तक जाते-जाते
दिल्ली ...!
बता दे,
इस रुख का राज़ क्या है
तुम्हारे आँखों में पलती है सपना
तुम्हारे कानों को सुहाती है सत्ता की भाषा
जरा बता तो दो..!
तुम हो क्यों...?
तुम हो क्या...?
तुम्हारा अपना है क्या....... ?

बुधवार, 23 मार्च 2011

बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी...?


लगता है अब अमेरिका दुनिया को अपने तरीके से चलाना चाहता है. असली जीवन में मानवाधिकारों को कुचलने वाला अमेरिका दुनिया में मानवाधिकारों का रक्षक होने का दावा (ढोंग) करता फिर रहा है.याद कीजिये गुआंतनामो जेल की घटना को. इराक और अफ़गानिस्तान के बाद लीबिया पर हमला न केवल अमेरिका के दबंग मानसिकता को उजागर करता है बल्कि उसके दुनिया का दादा बनने की तरफ इशारा भी करता है. लीबिया पर अमेरिका,ब्रिटेन फ्रांस की सेनाओं के हमले के पीछे का राज़ क्या है.? तेल का खेल या और कुछ, गद्दाफी का कदम अलोकतान्त्रिक है. लेकिन क्या उसकी तुलना में पश्चिमी सेनाओं की कार्रवाई जायज है. इराक -अफगानिस्तान में अमेरिका ने जो किया वह अब छुपा नहीं है.
क्या अब दुनिया में अमेरिका परस्त सरकारों की जरुरत है..? क्या अमेरिका दुनिया में कठपुतली सरकार और लोकतंत्र चाहता है.. ? जो उसके इशारों पर नाचे और उसकी बातों को आँख मुंदकर स्वीकार कर ले. दुनिया की सरकारें जीतनी मजबूर और लाचार होंगी, अमेरिका को उनपर अपने आर्थिक हितों को लादना उतना ही फायदे मंद होगा. इसलिए अमेरिका कहीं भी कभी भी मजबूत, ताकतवर,स्वाभिमानी और स्वतन्त्र अर्थव्यवस्था वाले लोकतान्त्रिक देश को कबूल नहीं करेगा.जिस देश की सरकार अमेरिका को पसंद नहीं है, वहां वह आतंरिक बगावत-विद्रोह करने का षडयंत्र रचता है. जब दुनिया दो खेमों में बंटी थी, तब की परिस्थितियां अलग थीं, देशज शब्दों में कहूँ तो अब अमेरिका दुनिया में 'छुट्टा सांड' की तरह घूम रहा है. किसकी मजाल है, जो उसे पकड़ कर पगहे (रस्सी) में बांधे. भूमंडलीकरण और आर्थिक उदारीकरण की नीतिओं से लथपथ दुनिया के देश उसी हद तक अमेरिका का विरोध कर सकते हैं, जहाँ तक उनकी अंतर्राष्ट्रीयहित प्रभावित न हो. आज कोई भी देश अंतर्राष्ट्रीय मुख्यधारा से अलग नहीं होना चाहता है. जाहिर हर देश की विदेश नीति राष्ट्रीय हितों पर टिकी होती है. लेकिन जब अमेरिका एक-एक देश को चुन-चुन कर शिकार बना रहा है . ऐसी स्थिति में उन देशों का क्या होगा जो आज लीबिया पर हमले के समय मौन हैं.बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी...?

शुक्रवार, 18 मार्च 2011

शुभकामनाएं...!

फेसबुक के सम्माननीय दोस्तों ...!
आप सहित परिवार के सभी सदस्यों,
सगे- सम्बन्धियों और दोस्तों के दोस्तों
को भी रंग भरी होली की अग्रिम हार्दिक शुभकामनाएं...

गुरुवार, 17 मार्च 2011

धनवादी प्रणाली पर टीकी, भारत की जनवादी प्रणाली

नोट रूपी संजीवनी से बची थी सरकार...?
जुलाई २००८ में UPA सरकार नोट रूपी संजीवनी से बची थी. इसका खुलासा विकिलीक्स ने किया है.परमाणु करार पर अल्पमत में आयी तत्कालीन सरकार ने बहुमत हासिल करने के लिए सांसदों को १०-१० करोड़ रुपये बतौर रिश्वत दिया था. सरकार के पक्ष में २७५ व् विपक्ष में २५७ वोट पड़े थे, जबकि १० संसद अनुपस्थित थे.भारतीय मीडिया इसको सनसनीखेज खुलासे के तौर पर पेश कर रहा है .जबकि ये बात देश की अनपढ़,गंवार और जाहिल कही जाने वाली आम जनता भी जानती है कि खरीद-फ़रोख्त के बल पर ही सरकार बची थी. विकिलीक्स ने तो मात्र अमेरिकी दूतावास के संदेस के आधार पर खुलासा कर इस पर अंतर्राष्ट्रीय मुहर भर लगा दी है. चूँकि विकिलीक्स के पूर्व के खुलासे को दुनिया (अमेरिका) ने ख़ारिज कर दिया, इसलिए भारत सरकार भी उक्त सूचना पर भरोसा नहीं करती है.राजनीतिक मौकापरस्ती की कहानी ये नई तो नहीं है .धनवादी प्रणाली पर ही भारत की जनवादी प्रणाली टिकी है.राजतन्त्र में राजा रानी के गर्भ से पैदा होता था,लोकतंत्र में वोट से पैदा होने लगा, लेकिन अब परिपाटी बदल गयी हैं. अब राजा नोट से पैदा हो रहा है. इसलिए नोट उसके लिए संजीवनी है.
तभी तो जो सूचना दुनिया के सबसे बड़े ईमानदार PM को नहीं मिली वो विकिलीक्स तक कैसे पहुंची. इसका मतलब सरकार चलाने वाले जानते हैं की सरकार कैसे बनाई और चलाई जाती है. कहीं यह सूचना लिक करने में ISI का हाथ तो नहीं है.

बुधवार, 16 मार्च 2011

फ्रेंच भाषी को भोजपुरी में नौकरी !

एक खबरनवीस था.वह रोज़ अलग २ विचारधाराओं का
मुखौटा लगाकर राजाओं (नोट -वोट की बदौलत लोकतंत्र में स्वयंभू राजा)
से मिलता था.एक दिन उसे एक सजातीय राजा मिल गया
और उस खबरनवीस को वह एक कुनबे का मुखिया बना दिया.
अब खबरनवीस खुद को राजा घोषित कर बैठा.
इस नए राजा ने लोगों को नौकरी देने का जाल बिछाया.
इससे उसकी लोकप्रियता बढ़ गयी. डिग्री धारी बेरोजगार जब उसके पास नौकरी के लिए जाते,
राजा उन्हें देखते ही समझ जाता.सो एक नया दांव चलता.
अंग्रेजी भाषी को उर्दू में और फ्रेंच भाषी को भोजपुरी व
हिंदी भाषी को तमिल अखबार-चैनल में नौकरी देने का वादा करता.
दरअसल राजा के पास नौकरी उसी भाषा में होती जिस भाषा से बेरोजगार अनभिज्ञ थे.
(असल में नौकरी कही नहीं थी) इस बात को राजा जानता था,लिहाजा वह बेरोजगारों को उलाहना देता,
कहता जब तुम लोगों को भाषा ही नहीं आती तो नौकरी क्या करोगे. तुम लोगों का जीवन व्यर्थ है.
बेरोजगारों को भाषा की अज्ञानता का इस कदर बोध होता की वे आत्मग्लानी से भर जाते.
और सोचते वास्तव में उनका जीवन व्यर्थ है.
नोट: राजा को जानने वाले बताते हैं की राजा खुद अल्प ज्ञानी था.