गंगा तुम बहती हो क्यूँ
विस्तार है अपर प्रजा दोनों पर
करें हाहा:कार नि:शब्द सदा ओ गंगा तुम गंगा बहती हो क्यूँ
नैतिकता नष्ट हुई मानवता भ्रष्ट हुई
निर्लज भाव से बहती हो क्यूँ इतिहास की पुकार करे हूंकार
ओ गंगा की धार निर्बल जन को
सबल संग्रामी समग्रो गामी बनाती नहीं हो क्यूँ
अनपढ़ जन अक्षरहीन अनगिन जन खाद्य विहीन
नेत्र विहीन दिख मौन हो क्यूँ
इतिहास की पुकार करे हूंकार
ओ गंगा की धार निर्बल जन को
सबल संग्रामी समग्रो गामी बनाती नहीं हो क्यूँ
व्यक्ति रहे व्यक्ति केन्द्रित सकल समाज व्यक्तित्व रहित
निष्प्राण समाज को तोड़ती न क्यूँ
इतिहास की पुकार...
श्रतस्वीनी क्यूँ न रही तुम निश्चय
चेतन नहीं प्राणों में प्रेरणा देती न क्यूँ
उन्मद अबनी कुरुक्षेत्र बनी
गंगे जननी नव भारत में
भीष्मरूपी सुतसमर जयी
जनती नहीं हो क्यों.
-भूपेन हजारिका
गंगा बहुतों के लिए जीवनदायनी और मोक्षदायनी हैं
लेकिन बहुतों के लिए चरने- खाने का केंद्र भी.
गंगा के नाम पर लूटने-खाने वालों की बढती जमात और
गंगा सेवा के नाम पर रोज़ नई -नई खुलती दुकानें
फिर भी सुखती गंगा, दुखती गंगा, गंगा की बढती दुर्दशा पर
आज भूपेन हजारिका जी की याद आ गयी.