गुरुवार, 5 मई 2011

बलुहट मिट्टी में तब्दील होती 'ज्ञान गंगा' !

बलुहट मिट्टी में तब्दील होती 'ज्ञान गंगा' !
एक दिन 'जन-जन' का विश्वविद्यालय के छात्रों ने
एक दिन किसानों की 'आत्महत्या' पर बनी 'मराठी'
फिल्म 'शो' आयोजित की.फिल्म की विषय-वस्तु और
किसानों की समस्या पर परिचर्चा के लिए छात्रों ने
दो हमदर्द शिक्षकों को आमंत्रित किया.
बताया जाता है कि दोनों शिक्षक छात्रों से कुछ ज्यादा
ही लगाव रखते हैं. वे कुछ कमजोर आदतों के शिकार
भी हैं. मसलन- 'क्लास रूम' के अलावा छात्रों से ढाबे पर,
राह चलते, पुस्तकालय में परिचर्चा करना,साथ में चाय
पीना,कभी-कभी दोपहर का भोजन करना आदि-इत्यादी.
'फिल्म शो' के बारे में विस्तृत व गंभीर सन्देश देने के उद्येश्य
से छात्रों ने 'The Hindu' में प्रकाशित केशव के कार्टून के साथ
एक शिक्षक के नाम का उल्लेख करते हुए जगह-जगह पोस्टर
लगा दिया. कई दिनों बाद ये सूचना 'जन-जन' का विश्वविद्यालय
के सह मुखिया पास पहुंची. सह-मुखिया ने शिक्षक के स्कूल के
मुखिया को अपनी दरबार में हाजिर होने के लिए मोबाइल फरमान
जारी किया. स्कूल मुखिया को लगा की शिक्षक ने कोई बड़ा 'अपराध'
किया है. सो, स्कूल मुखिया ने शिक्षक को भी सह-मुखिया के दरबार में
आने के लिए 'मोबाइल फरमान' जारी किया. सह-मुखिया के दरबार
में 'फिल्म शो' के बारे में जब बात चली तो स्कूल मुखिया आदत के अनुसार
ने पूरे मामले से पल्ला झाड़ लिया.अंततः तर्क-वितर्क पर कुतर्क भारी पड़ा,
भविष्य में अनुमति लिए वगैर इस तरह के कार्यक्रम में भाग न लेने और
आयोजित न करने के लिए शिक्षक को 'माउथ फतवा' जारी किया गया.
एक दिन बाद 'फिल्म शो' आयोजित करने वाले छात्रों को जब इस बात
का पता चला तो उनका पहला कमेन्ट था क़ि यह तो 'जन-जन' का विश्वविद्यालय
है. यदि यहाँ जन -जन के मुद्दों पर परिचर्चा नहीं होगी तो कहाँ होगी.
एक छात्र का तर्क कि जब देश के प्रधानमंत्री अपने आवास पर "पीपली लाइव" फिल्म
देख सकते हैं, जो राजव्यवस्था और मीडिया पर सीधे सवाल उठती है, तो क्या किसानों
की समस्या पर बनी फ़िल्में विश्वविद्यालय में नहीं देखी -दिखायी जा सकती.
दूसरे छात्र ने कहा भाई कहाँ वो प्रधानमंत्री, कहाँ ये 'जन-जन' का विश्वविद्यालय (?)
तीसरे छात्र ने दुष्यंत कुमार की एक पंक्ति दुहरायी-
" मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूँ पर कहता नहीं,
बोलना भी है मना, सच बोलना तो दर किनार "
मंद -मंद मुस्करा रहा, चौथे छात्र ने कहा लगता है. इस फतवे के बाद अब शिक्षक
महोदय 'जैन मुनियों' की तरह मुंह पर सफ़ेद पट्टी बांधे हूँ -हाँ, गूं- गां करते नजर
आयेंगे. पांचवां छात्र जो स्वाभाव और विचार से गरम है, ने दुष्यंत कुमार की एक पंक्ति
का सहारा लेकर कहा कि-
''रहनुमाओं की अदाओं पर फ़िदा है दुनिया,
इस बहकती हुई दुनिया को सम्भालों यारों ''
कुल मिलकर लगता है आधुनिक विश्वविद्यालय अकादमिक विरोधाभास के शिकार होते जा रहे हैं.
जो स्पेस अकादमिक गति-विज्ञान के लिए था अब उसे नौकरशाही-सामंती मानसिकता से ग्रसित कुछई
नये किस्म के आगंतुक जीव-जन्तू कर रहे हैं. अब विश्वविद्यालय आधुनिक ज्ञान -विज्ञान और सम्पूर्ण
विकास के केंद्र होने का सिर्फ दावा भर करते हैं. परिवर्तन का नायक बनने की क्षमता का अब दिनों क्षरण
हो रहा है. परिसरों क़ी अकादमिक जमीन दिनों-दिन बंजर होती जा रही है. प्रगतिशील पर्यावरण पर संकट
बढ़ता जा रहा है. सहमति और असहमति का फासला 'मत भेद' क़ी जगह 'मन भेद' का स्वरुप अख्तियार करता
जा रहा है. बदला लेने की नयी प्रवृति का जन्म हुआ है. लगता है विश्वविद्यालयों से बहने वाली 'ज्ञान गंगा' निरंतर
बलुहट मिट्टी में तब्दील होती जा रही हैं. और अंत में फैज़ साहेब याद आते हैं -
यूँ ही हमेशा उलझती रही है जुल्म से खल्क,
न उनकी रस्म नयी है, न अपनी रीत नयी है,
यूँ ही हमेशा खिलाए हैं हमने आग में फूल
न उनकी हार नयी है न अपनी जीत नयी है.
फ़िलहाल तो यही है.....