शुक्रवार, 25 मार्च 2011

दिल्ली... !

दिल्ली... !
आखिर तुम हो क्यों ...?
तुम हो क्या...?
तुम्हारा अपना है क्या ?
तुम्हारे पास आती है-
वर्षा बंगाल की खाड़ी से
सर्दी हिमाचल और जम्मू -कश्मीर से
गर्मी राजस्थान से
पीने का पानी पड़ोसी राज्यों से
सब्जियां पड़ोसी राज्यों से
फल पड़ोसी राज्यों से
दूध पड़ोसी राज्यों से
कपड़े बहार से
श्रमिक दूसरे राज्यों से
पत्रकार दूसरे राज्यों से
शिक्षक दूसरे राज्यों से
प्रधानमंत्री दूसरे राज्यों से
राष्ट्रपति दूसरे राज्यों से
कभी तुम उत्तर प्रदेश,बिहार, झारखण्ड के बोझ से दब जाती हो
कभी पूरे देश को दबा देती हो
तुम्हारी मिटटी में कौन सा गुण है
लोग गाँव से चलते हैं पाक-साफ
तुम्हारे गोंद में आते ही बन जाते हैं नापाक
जिनके सहारे पहनते हैं स्वर्ण मुकुट
उन्हीं को लूटते हैं, उन्हीं को छलते हैं
जनता के हिस्से का करोड़ों डकार जाते हैं
फिर भी बने रहते हैं रहनुमा
बता तुम्हारे दिखावे में भी कितनी अदा है, अद्भुत कला
तुम्हारा दिल कितना निरंकुश, निष्ठुर, निर्दयी, निर्मम है
तुम्मारे दमन पर लगे हैं कितने दाग
तुम्हारा बाजारू मिजाज़
सत्ता, स्वार्थ,संवेदनहीनता, सरपरस्ती पर है टिका
दिल्ली..!
तुम कभी दुल्हन लगाती हो, कभी विधवा
कभी शिकार होती हो, कभी करती हो
तुम्हारे हवा के रुख से ही देश का ईमानदार आदमी
बन जाता है बेईमान
तुम्हारे अन्दर से निकलने वाली नदियाँ
सुख जाती हैं, टेल तक जाते-जाते
दिल्ली ...!
बता दे,
इस रुख का राज़ क्या है
तुम्हारे आँखों में पलती है सपना
तुम्हारे कानों को सुहाती है सत्ता की भाषा
जरा बता तो दो..!
तुम हो क्यों...?
तुम हो क्या...?
तुम्हारा अपना है क्या....... ?