बुधवार, 23 मार्च 2011

बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी...?


लगता है अब अमेरिका दुनिया को अपने तरीके से चलाना चाहता है. असली जीवन में मानवाधिकारों को कुचलने वाला अमेरिका दुनिया में मानवाधिकारों का रक्षक होने का दावा (ढोंग) करता फिर रहा है.याद कीजिये गुआंतनामो जेल की घटना को. इराक और अफ़गानिस्तान के बाद लीबिया पर हमला न केवल अमेरिका के दबंग मानसिकता को उजागर करता है बल्कि उसके दुनिया का दादा बनने की तरफ इशारा भी करता है. लीबिया पर अमेरिका,ब्रिटेन फ्रांस की सेनाओं के हमले के पीछे का राज़ क्या है.? तेल का खेल या और कुछ, गद्दाफी का कदम अलोकतान्त्रिक है. लेकिन क्या उसकी तुलना में पश्चिमी सेनाओं की कार्रवाई जायज है. इराक -अफगानिस्तान में अमेरिका ने जो किया वह अब छुपा नहीं है.
क्या अब दुनिया में अमेरिका परस्त सरकारों की जरुरत है..? क्या अमेरिका दुनिया में कठपुतली सरकार और लोकतंत्र चाहता है.. ? जो उसके इशारों पर नाचे और उसकी बातों को आँख मुंदकर स्वीकार कर ले. दुनिया की सरकारें जीतनी मजबूर और लाचार होंगी, अमेरिका को उनपर अपने आर्थिक हितों को लादना उतना ही फायदे मंद होगा. इसलिए अमेरिका कहीं भी कभी भी मजबूत, ताकतवर,स्वाभिमानी और स्वतन्त्र अर्थव्यवस्था वाले लोकतान्त्रिक देश को कबूल नहीं करेगा.जिस देश की सरकार अमेरिका को पसंद नहीं है, वहां वह आतंरिक बगावत-विद्रोह करने का षडयंत्र रचता है. जब दुनिया दो खेमों में बंटी थी, तब की परिस्थितियां अलग थीं, देशज शब्दों में कहूँ तो अब अमेरिका दुनिया में 'छुट्टा सांड' की तरह घूम रहा है. किसकी मजाल है, जो उसे पकड़ कर पगहे (रस्सी) में बांधे. भूमंडलीकरण और आर्थिक उदारीकरण की नीतिओं से लथपथ दुनिया के देश उसी हद तक अमेरिका का विरोध कर सकते हैं, जहाँ तक उनकी अंतर्राष्ट्रीयहित प्रभावित न हो. आज कोई भी देश अंतर्राष्ट्रीय मुख्यधारा से अलग नहीं होना चाहता है. जाहिर हर देश की विदेश नीति राष्ट्रीय हितों पर टिकी होती है. लेकिन जब अमेरिका एक-एक देश को चुन-चुन कर शिकार बना रहा है . ऐसी स्थिति में उन देशों का क्या होगा जो आज लीबिया पर हमले के समय मौन हैं.बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी...?