मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

‘हँस’ से ‘मच्छर’ का शिकार



गंगा की परछाई में चाँद की अठखेलियाँ (भाग दो)


११ मार्च,२००९

सुखिया सब संसार है,खावे और सोवै,
दुखिया दास कबीर हैं,जागे औरु रोवै.

कबीर की ये पंक्ति मेरे पर सटीक लागू होती है.सुबह के सात बजे हैं.अभी अभी नींद खुली है.छत पर टहल रहा हूँ.सूर्य बादलों में खो गया है.आज नज़रें नहीं मिलीं.हवा बदन में सिहरन पैदा कर रही है.थोड़ा टहला,मन नहीं लगा.चाय बनाई.तभी अखबार आ गया.फिर क्या था,चाय और अखबार संगत घंटों रहा.फिर सो गया.१२ बजे नींद टूटी.आलू पनीर और टमाटर की सब्जी बनाया.कल की भांति आज भी हीटर का तार तेज पावर की वजह से उड़ गया.सब्जी किसी तरह पक गई.जैसे ही चावल चढ़ाया,पाँच मिनट बाद ही हीटर धोखा दे गया.बनाने का प्रयास किया तो दो टुकड़े हो गया,भारत-पाकिस्तान की तरह.पता नहीं,उसे मुझसे क्या ईष्या थी और तुमसे प्रेम...!
नास्ते में अंगूर था,जैसे ही खाने के लिए चावल निकाला,देखा सिर्फ आधा पका है.मेरे पास सिवा उसे खाने के,दूसरा कोई विकल्प नहीं था.क्योंकि बाहर जा नहीं सकता था.रंगभरी होली थी.बचा-खुचा रात में ८ बजे खाया.नया ज्ञानोदय, पुनर्नवा, रामचरित मानस, सामवेद, उल्टा-पलटा मजा नहीं आया.नया ज्ञानोदय के मई २००८ अंक में प्रकाशित बच्चन सिंह पर विजय मोहन सिंह का संस्मरण पढ़ा.हँस खोजा स्नोवा बर्नो (पता नहीं,यह महिला थी की पुरुष) की कहानी लो,आ गई मैं तुम्हारे पासपढ़ा.बाप रे, १४ पृष्ठ.क्या लिखती-लिखता है...?
कितनी मुश्किल होती है कैद की सजा काटना सारी सुविधाओं के बावजूद आज मैंने खिडकियां नहीं खोली.मच्छर भी नहीं आये.एक मच्छर दिखा,उसका शिकार हँस के माध्यम से कर दिया,क्या बताऊँ...? चूँकि आज मैं छत पर नहीं गया,इसलिए उस फिज़ा को बयां नहीं कर सकता.मेरी अपनी चाँद जब नहीं दिखेगी तो मैं किसी और चाँद को क्यों देखूं...?
हम सपना भी तो उसी का देखते हैं,जिसे हम हांसिल कर सकें और तुम मेरा सपना ही तो हो या मैं तुम्हारा...? रात के ९.१५ पर तुम्हारा फोन आया.तुम बोली खाना नहीं खाए.तुम्हारी आवाज़ में रोने का अहसास था.
तुम कितना अकेलापन महसूस कर रही थी,अपने परिवार में रह कर भी असंतुष्ट थी.माँ-बाप के पास,जिसने तुम्हें जन्म दिया.पाल-पोश कर बड़ा किया.पढ़ाया-लिखाया.वहाँ अकेला,तन्हां अर्थात और अधीर थी.आखिर ऐसा क्या है मुझमें जो तुम्हें अपनों के बीच में अकेला कर देता है.सब कुछ के बावजूद मैं पराया लेकिन तुम मुझमें अपनापन तलाश लेती हो.तुम्हारे इसी कला पर तो मैं फ़िदा हूँ,वरना हिमालय सरीखा मेरे जिद और संकल्प को,निर्णय और जीवन को कोई डिगा नहीं सकता.याद आता है उपकार फिल्म का वह गीत जिसमें रिश्ते-नातों,प्यार वफ़ा पर कितना ठोस और मजबूत पक्ष रखा गया है.

देखो मेरे समझ से हर जीवन की अपनी जरुरत होती है.बचपन में माँ–बाप का सहारा.यौवन,जवानी-किशोरावस्था में एक ईमानदार,जिम्मेदार,प्रतिबद्ध और संवेदनशील दोस्त,जीवन साथी का और बुढ़ापे में सहारा चाहे बेटा दे या कोई और यह हकीकत है,इसे झुठलाया नहीं जा सकता.तुम मुझसे अधिक पढ़ी-लिखी हो.कई मामले में मुझसे अधिक समझदार और संवेदनशील हो तुम्हारा व्यवहार बहुत लचक और तरल है.तुम दांव-पेंच वाला व्यवहार नहीं करती.तुम्हारा मन और दिल जल की तरह स्वच्छ और चंचल है,दीमाग खुराफाती नहीं है.तुम जिस चीज को चाहती हो उसे हासिल करके रहती हो.तुम्हारे अंदर दया और परोपकार की भावना बहुत प्रबल है.पर कभी तुम्हारा व्यवहार शक पैदा करता है.तुम्हारे बारे में और जानने के लिए.तुम क्या हो तुम खुद जानती हो.तुम्हारा मूल्यांकन कोई दूसरा करे,इससे पहले कि तुम खुद अपना मूल्यांकन करो.तुम्हें कोई सुधरने के लिए प्रवचन दे,तुम खुद ही सुधर जाओ.
मैं ऐसे दोस्त को अधिक पसंद करता हूँ,जो स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित करे.आज़ाद ख्याल का हो.निर्भीक हो और निष्पक्ष हो.जहां हो,वहाँ उसकी स्वतंत्र पहचान हो स्वतंत्र चिंतन हो और स्वतंत्र जीवन,लेकिन ऐसी स्वतंत्र चरित्र न हो जो रिश्तों की दीवार को गिरा दे.मेहंदी घिसने के बाद अपना असर दिखाती है.सोने की पहचान धधकते आग में होती है.लोहा लाल होने के बाद ही सही आकार लेता है.मूर्ति करोड़ों काँटी खाने के बाद पूज्यनीय बनती है.भारतीय समाज में स्त्री,पुरुष के साथ सम्पूर्णता ग्रहण करती है.
यदि तुम्हें गर्व होगा मुझे पाकर तो सम्भव है,मुझे भी गर्व होगा.तुम्हें पाकर,तुम्हारा साथ मिलकर जाति और धर्म के ऊँच और नींच का बंटवारा हम तुम मिलकर नहीं किये.हम तुम मिलकर तो इसे तोड़ने का काम करेंगे.सदियों से स्थापित इस भेद-भावपूर्ण जड़ता को,कठमुल्लेपन को पाखंड को,दिलों से दिलों को बाँटने वाली मानसिकता को..मैं तो ऐसा साथी चाहता हूँ जिसके चरित्र का प्रकाश इतना तेज हो कि सूर्य भी आँख मिलाने से सहम जाये.

मुझे उम्मीद है तुम ऐसा बनने का प्रयास करोगी.इतिहास रचने के मौके कम आते हैं और हर किसी को इसका स्वर्णिम अवसर नहीं मिलता है
                                                       सिर्फ तुम्हारा      
तीसरे भाग की प्रतीक्षा करें ...

रविवार, 12 फ़रवरी 2012

'सूरज' के 'कुंड' को एक बूंद का इंतज़ार













'सूरज' के 'कुंड' को एक बूंद का इंतज़ार


            

११ फरवरी
,२०१२.
हरियाणा राज्य के फरीदाबाद में सूरजकुंड का वर्तमान बहुत संकटमय है.कभी यह जलाशय पूज्यनीय,दर्शनीय और नौका विहार का केंद्र था.अब यह एक बूंद पानी के लिए तरस रहा है.तब देश-विदेश के लोग यहाँ आया करते थे,पर्यटक तो अब भी आते हैं.१० वीं शताब्दी के करीब तोमर वंश के राजा सूरजपाल ने सूरजकुंड झील का निर्माण कराया था.सूरजकुंड यानि सूरज का झील/जलाशय.यह अरावली पहाड़ियों की पृष्ठभूमि में निर्मित है,तोमर सूर्य की पूजा करते थे,इसलिए उन्होंने पश्चिमी तट पर एक सूर्य मंदिर का निर्माण किया था.सूरजकुंड में प्रत्येक वर्ष फरवरी में १५ दिन का अंतरराष्ट्रीय हस्तशिल्प मेला लगता है.इस बार का २६ वां मेला लगा है.

पहली बार २००७ में,मैं इस मेले में गया था और दूसरी बार २००८ में.तभी से इसे बार-बार देखने की ललक मेरे मन में पैदा हुआ.लेकिन इस बार इस कदर भीड़ उमड़ी दिखी की अब मन उचट गया.खैर,मेला से निकलते समय मीडिया सेंटर के पास तैनात एक पुलिस से सूरजकुंड के बारे में पूछा,पहले वह मेरे चेहरे का पोस्टमार्टम किया.हँसा फिर मंद-मंद मुस्कान के साथ कुंडकी तरफ इशारा किया.मैं उत्तर दिशा से प्रवेश किया,हालांकि यह आम रास्ता नहीं था.गुब्बारा बेचने वाले से पूछा तो उसने कहा इधर से ही चले जाइये साहबपुलिस वाले मेला में व्यस्त हैं,उधर से जाइयेगा तो पांच रूपये का टिकेट लगेगा...

राजतंत्र के सूर्य का अस्त क्या हुआ जैसे राजाओं के दिन लद गए.सूरजकुंड भी इसी का शिकार हुआ.यह भारत है.यहाँ उगते सूरज को सब नमस्कार करते हैं.वहीं लोग सूर्यास्त के समय उधर देखना पसंद नहीं करते हैं.उगते हुए सूरज को सलाम करने का रिवाज है.वह चाहे राजसत्ता का हो या व्यक्ति विशेष का.


जब मैं कुंड को देखा,लगा कितनी मनोहारी छटा में यह बना होगा.अब भी उसके अवशेष बच हुआ है.लेकिन इसके बसंत के दिन लद चुके हैं.पत्थरों से तरासी गयी सीढियाँ और घेरे अपने अतीत के कौशल और यादों को समेटे हुए हैं.यह कुंड बूंद-बूंद पानी के लिए तरस रहा है.

जब हम वहाँ थे,सूरज बादलों से लुका-छिपी कर रहा था और बच्चे कुंड में खेल रहे थे.अब कई यादें अपने गोंद में समेटे हुए है.यहाँ दूर-दराज से प्रेमी जोड़े आते हैं.मिलते हैं,इजहार करते हैं,कुछ गले मिलते हैं,कुछ जुड जाते हैं,कुछ अलग हो जाते हैं,कुछ टूट जाते हैं तो कुछ रूठ जाते हैं.यह सिहरन,अलगाव, अहसास,सुख-दुःख और दर्द के मिलन-बिछोह का स्थल भी रहा है.पहले यह जोड़े सीढियों पर बैठकर कागज़ की नांव बनाते,उस पर लिखते फिर जलाशय में छोड़ते फिर सपना बुनते फिर भविष्य का प्रवाह तलाशते अब इसमें पानी नहीं रहा.लोग अब भी आते हैं.पेड़ों के नीचे,छाये में पत्थरों के आड़ में अपने पल को जीते हैं.

पर्यटक यहाँ के अतीत के प्रसिद्धि को जान कर आते हैं और वर्तमान को लेकर जाते हैं.

       ... रमेश 

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2012

गंगा की परछाई में चाँद की अठखेलियाँ...




आज मार्च,२००९ की १० तारीख है.दिन मंगलवार.खाना खाकर अभी- अभी लेटा हूँ.रात्रि के करीब पौने नौ बजे हैं.कमरे में मरघट का सन्नाटा है.फैन अपनी लोकप्रिय आवाज़ की मस्ती में घूम-झूम रहा है.शहर में होली की तैयारी चल रही है और मैं अकेले तन्हां-बोझिल मन से तुम्हारी यादों को टटोल रहा हूँ और उन्हें 'शब्द' दे रहा हूँ,डायरी के पन्नों में... 

तुम सुबह गाँव चली गई.जैसे लग रहा है कि तुम्हारे साथ सब कुछ चला गया,कमरे में सिर्फ तुम्हारी परछाई और यादें सन्नाटे के साथी हैं...

खिड़की के झरोखों से तुम्हारे जाते हुए पग को तब तक देखता रहा,जब तक की वो मेरे नज़रों से ओझल नहीं हो गए.तुम्हारे चलने का अंदाज़ ऐसा था,जैसे कोई तुम्हें धक्का देकर आगे बढ़ा रहा हो,बेमन,बे,अदा,बे रफ़्तार से तुम दायें हाथ में बैग लिए चली जा रही थी,अकेले ! ...सब कुछ लेकर...

तुम्हें गाँव बहुत प्यारा है.तुम अपनी माँ को बहुत प्यार करती हो,पिता को भी ! कोशिश करती हो की तुम्हारे किसी कदम से उन्हें,उनके दिल और सम्मान को,कोई ठेस न लगे...

मुझे मालूम है कि तुम्हारी प्रगति को तुम्हारे परिवार में सिवा माँ-बाप को छोड़कर कोई हजम नहीं करता.तुम्हारे परिवार में सदस्यों के साथ वैचारिक मतभेद हैं.बावजूद इसके तुम उस परिवार में त्यौहार को मनाने  जरुर जाती हो,क्यों इस सवाल का सार्थक और तर्क संगत जवाब भी तुम्हारे पास ही है, और मैं ...?  

जानना चाहोगी आज का दिन कैसे बीता.तुम्हारे जाने के बाद मैं सो गया,दिन भर सोता ही रहा,बीना कुछ खाए-बनाये.जो तुम खिलाये थे,वहीँ  पेट में उर्जा का स्रोत रहा...

करीब पाँच बजे उठा.मंजन किया.स्नान किया.अंगूर खाया,बादाम और काजू भी.इंडिया टुडे पढ़ा.भूख लगी.खाना बनाने चला.गैस पर दाल चढ़ाया,कुछ देर बाद गैस खत्म हो गया.हीटर खोजा.ठीक किया.थोड़ी देर बाद वह भी खराब हो गया.

बाज़ार गया.हीटर का नया एलिमेंट लाया,पन्द्रह सौ वाट का.बहुत देर में सेट हुआ.जैसे ही जला  या.पाँच-पाँच मिनट के अंतराल पर तीन जगह से  एलिमेंट  उड़ गया.अंततः बनाते-बिगाड़ते चावल दाल बनाया और दूध गरम किया.दुकानदार ने बताया था,एक नंबर का है,यह एलिमेंट.ताजुब है                   
एक नंबर का माल,एक घंटा भी नहीं जला-चला.

काफी बनाया चीनी नहीं मिली.या यूँ कहा जाये मैं नहीं खोज सका.जबकि तुम सब कुछ बता कर गए थे.कमरे में मन नहीं लगा रहा था.छत पर गया,फ़िजा में चारो तरफ धुंध था.

उत्तर दिशा की तरफ नज़र घुमाया,शहर की लाइटें टिमटिमा रहीं थीं.इनका प्रतिबिम्ब गंगा की लहरों से अठखेलियाँ कर रही थीं.पूरब की दिशा में मंज़र काफी दिल हिला देने वाला था.गंगा के उस पर दूर...कहीं तीन लाशों के जलने की आकृति दिख रही थी.किसी के लिए होली का जश्न,किसी के लिए तेरह दिन का गम...

पूरब और दक्षिण कोने पर नज़र गयी,राम नगर का किला (पूर्व काशी नरेश),एक दम भक्कसावन दिखा रहा था.कभी इस किले की महफिलें / रातें गुलज़ार हुआ करती थीं,याद कीजिये राजतन्त्र को...!

आसमान में देखा,चाँद बादलों की गोंद में अठखेलियों में मदमस्त था.मेरा चाँद दूर कहीं पूरब और दक्षिण के कोने में किसी गांव के अपने घर में,परिवार में मगन.

आसमान में तारे आज खो गए थे.बहुत नजर दौड़ाने पर दो-चार दिखे.तभी होलिका जलने की आहट,बच्चों के चिल्लाने,चहकने से आयी.आसमान में चारों तरफ होलिका दहन की रौशनी दिख रही थी.एकाएक  आसमान में लालिमा छा गई...

आप सोच रहे होंगे कि पश्चिम की तरफ मेरा ध्यान क्यों नहीं गया,दरअसल उस दिशा में एशिया का सुप्रसिद्ध विश्वविद्यालय का ज्ञान  बलुहट होता प्रतीत हो रहा था और 'मालवीय' जी...छड़ी लिए चले जा रहे थे...!      

छत पर कुछ बालक-बालिकाएं पटाखा लिए चहल कदमी कर रहे थे.वहाँ  की शांति-अशांति में तब्दील होती,इससे पहले मैं कमरे में दाखिल हो गया.कमरे में सन्नाटा था.लेकिन रह-रह कर धड़ाम-धड़ाम की आवाजें आती रहीं.तुम नहीं थी,लेकिन कमरे में तुम्हारी यादें थीं.उसी के सहारे कल्पनाशील बिस्तर के आगोश में...करवटें बदलता रहा,कब नींद आई,पता नहीं...

सुबह आँख खुली.बाहर का मंज़र देखा,चारों तरफ रंग और गुलाल उड़ रहे थे,लोग एक दूसरे के साथ फगुआ खेल रहे थे.और मैं तुम्हारी यादों से...            


मांफ करना तुम्हारी अनुपस्थिति में मैं आज एक 'शब्द' भी नहीं लिख सका.लिखने के लिए दिल,दीमाग और दृष्टिकोण  की जरुरत थी.वह सब तुम्हारे साथ चला गया था या फिर तुम्हारी यादों में खो गया था.मेरे पास थी तो बस शरीर,हाड़-मांस की...
                                          
                                                                            सिर्फ तुम्हारा ! 
                                                                            अब   'ज़ान'... भी जाओ ...!     
                
 अगले भाग की प्रतीक्षा करें !

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012

ज्ञान का 'अर्थी' उठाने और 'पिंड दान' करने वाला वर्ग कौन है,मेरे देश की संसद मौन है !


एक वर्ग है जो ज्ञान का उत्पादन कर रहा है
दूसरा वर्ग ज्ञान का प्रचार-प्रसार / बाँट रहा है
एक तीसरा वर्ग है जो ज्ञान का व्यवसाय / व्यापार कर रहा है
एक चौथा वर्ग है जो ज्ञान का 'अर्थी' उठा रहा है
एक पांचवां वर्ग भी है जो ज्ञान का  'पिंड दान' कर रहा है
यह तीसरा,चौथा और पांचवां वर्ग कौन है,मेरे देश की संसद मौन है...     
                                                                                                --रमेश यादव