रविवार, 8 मई 2011

'मां' पर 'कविता' लिखो ...!


'मां' पर 'कविता' लिखो ...!
'मदर्स डे' को लेकर हमारा अलग विचार हैं. मेरी एक दोस्त ने कहा 'मां' पर एक "कविता" लिखो.
मैं कल से उसे टहला रहा हूँ. लेकिन वो भी कम नहीं.कल से ही फोन कर-कर के उपद्रव मचा दिया है.
मैं उसे बहुत समझाने का प्रयास किया क़ी मेरा इस 'मदर्स डे' को लेकर मतभेद है.वो भी कमतर नहीं,
उसने मुझे एक सन्देश भेजा, लिखा- तुम स्वार्थी हो, मतलबी हो,धोखेबाज़ हो,मौकापरस्त हो, झूठे हो, फरेबी हो.
वैसे लिखते रहते हो जब "मां" पर लिखने क़ी बारी आती है तो कुतर्क देते हो और भी पता नहीं क्या-क्या इलज़ाम लगाया.
उसके शब्दों के 'वार' को झेलने के लिए जरुरी है, झेलने वाले दिल का होना.उसके धक्का मारने पर 'मां' पर कुछ लिख रहा
हूँ, लेकिन यह अंतिम नहीं है, ये शुरुआत है, भविष्य में इसे विस्तार दूंगा ...

एक
'मां' का 'आँचल'
अपने समय में मेरी 'मां' बला की खूबसूरत रहीं.जिस रास्ते से गुजरतीं लोग उन्हें मुंड-मुंड कर दूर तक देखते रहते.
लगता है, इसीलिए नाना-नानी ने उनका नाम रखा "गुलाबी".बचपन में 'मां' का 'आँचल' पकड़ कर दिन भर उनके
पीछे -पीछे घुमना आज भी याद हैं.संयुक्त परिवार था.पिता जी ६ भाइयों और दो बहनों में सबसे बड़े थे.दादा -दादी
को व्यवहार के मामले में हिटलर के आस-पास ही पाता हूँ. मौसम चाहे जो भी हो, 'मां' का आँचल ही मेरा सब कुछ था.चाचा
लोग मुझे बहुत चिढ़ाते थे.कभी.कभी तंग आकर 'मां' मेरी पिटाई भी कर देतीं और खुद भी रोनें लगतीं.फिर भी मैं उनसे
अलग न होता. अंततः हार मान कर चुप हो जातीं.बचपन में जब लोग मजाक में 'मां' के 'आँचल' से अलग करते, मैं चीख पड़ता,
आज मैं 'मां' से कितना दूर हूँ ,बहुत दूर,'मां' गाँव, मैं दिल्ली ...
दो
ममता और अनुशासन का पलड़ा बराबर
'मां' क़ी पिटाई आज भी याद है. 'मां' के व्यवहार में कांचन क़ी कठोरता और कमल पुष्प क़ी कोमलता का दर्शन मिलता है.
मेरी बचपन क़ी बदमाशियों को उन्होंने आमतौर पर अनदेखी कीं. लेकिन जब शिकायत घर तक पहुंचती तो कभी माफ़ नहीं
किया.हमें याद आता है. संभवतः मैं कक्षा एक में था. नानी गाँव गया था.एक दिन कुन्नन साव (गाँव के जमींदार) के बागीचा
में हम बच्चों ने एक पेंड़ के पास आग लगा दी.मौसम सर्दी का था. कुन्नन साव शिकायत लेकर घर पहुंचे.'मां' उन्हें चाचा कहकर
बुलाती थीं.संयोग ख़राब था. मैं भी उसी समय पहुँचा.'मां' ने मुझे दौड़ाया. मैं भागा.रास्ते में पड़ोस का मामा गाय बंधाने के लिए खूंटा
गाड़ रहा था.'मां' ने उसके हाथ से खूंटा छीन कर मेरी बहुत पिटाई क़ी.उस दिन मैं बहुत रोया.मुझे देख कर जब पड़ोस क़ी मामी ने
'मां' को डाटा तब जाकर मुझे ले आयीं और समझाते हुए खुद भी रोने लगीं....

तीन
विद्रोह का ककहरा
'मां' बहुत विद्रोही स्वाभाव क़ी रही हैं.जितना नरम, उतनी हठी भी और जिद्दी.जो ठान लेती हैं,उसे करके दम लेतीं हैं.
पहले ही बता चुका हूँ. अपने दादा -दादी को व्यवहार के मामले में हिटलर के आस-पास ही पाता हूँ.'मां' हर तरह के उत्पीड़न
का मुखर विरोध करती रही हैं.संयुक्त परिवार क़ी अपनी खूबियाँ और कमजोरियां होती हैं.'मां' संयुक्त परिवार क़ी प्रतिबद्धताओं
से इस कदर बधीं थीं क़ी हमेशा व्यक्तिगत हित का बलिदान किया.हमने विद्रोह का ककहरा 'मां' से सीखा. मेरा परिवार सामंती
मानसिकता का रहा है. 'मां' क़ी बहुत सारी खूबियाँ मेरे में भी प्राकृतिक तौर पर स्थानांतरित हुई हैं...
चार
सीआईए भी से तेज थी मां- नानी की ख़ुफ़िया एजेंसी
बचपन का एक बड़ा हिस्सा 'नानी' गाँव में बिता है. गाँव में पढ़ने -लिखने का माहौल नहीं था.
मेरे घर के ठीक सामने एक लड़की थी. जाते ही उससे मेरी दोस्ती हो गयी थी.मई सोचता सारे
बच्चे खेलते हैं. गाय-भैस चरते हैं और मुझे स्कूल भेजा जाता है.मैं भी काम नहीं था.झोला किसी
कोने में रख कर धीरे से अपने दोस्त के साथ निकल जाता. आमतौर से वो मुझे लेने भी आ जाती.
किसी काम से जब 'मां' घर के उस कोने में जातीं.झोला देखा कर 'नानी' से पूछतीं.नानी को समझते
देर न लगता.'नानी' की ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए से भी तेज थी.'नानी' एक हाथ में मेरा झोला लिए,
दूसरे में 'डंडा' मेरे ठिकाने पर पहुँच जाती और दूर से ही आवाज़ देतीं.मैं चौकन्ना हो जाता.'नानी'
मेरा झोला कुछ दूर पर रखकर लगती धमकाने.मैं सतर्क, डरते-डरते झोला उठता और स्कूल के
रास्ते तेज भागता. 'नानी' इतने भर से ही नहीं मानती.मैं आगे-आगे 'नानी' मेरे पीछे -पीछे.एक किलोमीटर
तक जातीं. जब उन्गें पूरा यकीं हो जाता क़ी अब वापस नहीं आएगा.तभी घर लौटतीं.'नानी' में एक खूबी थीं
मारती नहीं थीं.जब 'मां' मारती थीं तो 'नानी' उनसे लड़ पड़ती थीं.नानी अब इस दुनियां में नहीं रहीं लेकिन उनकी यादें
आज भी फ्लैश बैक में जिन्दा हैं.....
पाँच
'गुलाबी समय'
एक दिन एक सपना देखा.गुलाबी और सुन्दर.अनुकूल संभावनाओं से परिपूर्ण और उज्जवल.
'संघर्ष,सृजन और फौलादी संकल्पों क़ी धनी मां' ने सामर्थ्य के अनुसार जो बना, सब दिया.मेरे अन्दर
पढ़ने और लड़ने क़ी ललक पैदा कीं 'मां' के ऋण को तो मैं ताउम्र नहीं भर सकता.लेकिन उनके लिए तोहफे
में एक घर बनवा कर दे रहा हूँ, गाँव से दूर,खेत में.घर का 80 फीसदी काम हो गया है. 2012 में तैयार हो जायेगा.
घर का नाम रखा है 'गुलाबी समय'. उम्मीद है 'मां' आप को और 'पिता' जी को पसंद आएगा....

और अंत में दरअसल जो लिखना चाहता था, वह लिख नहीं पाया...!

गुरुवार, 5 मई 2011

बलुहट मिट्टी में तब्दील होती 'ज्ञान गंगा' !

बलुहट मिट्टी में तब्दील होती 'ज्ञान गंगा' !
एक दिन 'जन-जन' का विश्वविद्यालय के छात्रों ने
एक दिन किसानों की 'आत्महत्या' पर बनी 'मराठी'
फिल्म 'शो' आयोजित की.फिल्म की विषय-वस्तु और
किसानों की समस्या पर परिचर्चा के लिए छात्रों ने
दो हमदर्द शिक्षकों को आमंत्रित किया.
बताया जाता है कि दोनों शिक्षक छात्रों से कुछ ज्यादा
ही लगाव रखते हैं. वे कुछ कमजोर आदतों के शिकार
भी हैं. मसलन- 'क्लास रूम' के अलावा छात्रों से ढाबे पर,
राह चलते, पुस्तकालय में परिचर्चा करना,साथ में चाय
पीना,कभी-कभी दोपहर का भोजन करना आदि-इत्यादी.
'फिल्म शो' के बारे में विस्तृत व गंभीर सन्देश देने के उद्येश्य
से छात्रों ने 'The Hindu' में प्रकाशित केशव के कार्टून के साथ
एक शिक्षक के नाम का उल्लेख करते हुए जगह-जगह पोस्टर
लगा दिया. कई दिनों बाद ये सूचना 'जन-जन' का विश्वविद्यालय
के सह मुखिया पास पहुंची. सह-मुखिया ने शिक्षक के स्कूल के
मुखिया को अपनी दरबार में हाजिर होने के लिए मोबाइल फरमान
जारी किया. स्कूल मुखिया को लगा की शिक्षक ने कोई बड़ा 'अपराध'
किया है. सो, स्कूल मुखिया ने शिक्षक को भी सह-मुखिया के दरबार में
आने के लिए 'मोबाइल फरमान' जारी किया. सह-मुखिया के दरबार
में 'फिल्म शो' के बारे में जब बात चली तो स्कूल मुखिया आदत के अनुसार
ने पूरे मामले से पल्ला झाड़ लिया.अंततः तर्क-वितर्क पर कुतर्क भारी पड़ा,
भविष्य में अनुमति लिए वगैर इस तरह के कार्यक्रम में भाग न लेने और
आयोजित न करने के लिए शिक्षक को 'माउथ फतवा' जारी किया गया.
एक दिन बाद 'फिल्म शो' आयोजित करने वाले छात्रों को जब इस बात
का पता चला तो उनका पहला कमेन्ट था क़ि यह तो 'जन-जन' का विश्वविद्यालय
है. यदि यहाँ जन -जन के मुद्दों पर परिचर्चा नहीं होगी तो कहाँ होगी.
एक छात्र का तर्क कि जब देश के प्रधानमंत्री अपने आवास पर "पीपली लाइव" फिल्म
देख सकते हैं, जो राजव्यवस्था और मीडिया पर सीधे सवाल उठती है, तो क्या किसानों
की समस्या पर बनी फ़िल्में विश्वविद्यालय में नहीं देखी -दिखायी जा सकती.
दूसरे छात्र ने कहा भाई कहाँ वो प्रधानमंत्री, कहाँ ये 'जन-जन' का विश्वविद्यालय (?)
तीसरे छात्र ने दुष्यंत कुमार की एक पंक्ति दुहरायी-
" मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूँ पर कहता नहीं,
बोलना भी है मना, सच बोलना तो दर किनार "
मंद -मंद मुस्करा रहा, चौथे छात्र ने कहा लगता है. इस फतवे के बाद अब शिक्षक
महोदय 'जैन मुनियों' की तरह मुंह पर सफ़ेद पट्टी बांधे हूँ -हाँ, गूं- गां करते नजर
आयेंगे. पांचवां छात्र जो स्वाभाव और विचार से गरम है, ने दुष्यंत कुमार की एक पंक्ति
का सहारा लेकर कहा कि-
''रहनुमाओं की अदाओं पर फ़िदा है दुनिया,
इस बहकती हुई दुनिया को सम्भालों यारों ''
कुल मिलकर लगता है आधुनिक विश्वविद्यालय अकादमिक विरोधाभास के शिकार होते जा रहे हैं.
जो स्पेस अकादमिक गति-विज्ञान के लिए था अब उसे नौकरशाही-सामंती मानसिकता से ग्रसित कुछई
नये किस्म के आगंतुक जीव-जन्तू कर रहे हैं. अब विश्वविद्यालय आधुनिक ज्ञान -विज्ञान और सम्पूर्ण
विकास के केंद्र होने का सिर्फ दावा भर करते हैं. परिवर्तन का नायक बनने की क्षमता का अब दिनों क्षरण
हो रहा है. परिसरों क़ी अकादमिक जमीन दिनों-दिन बंजर होती जा रही है. प्रगतिशील पर्यावरण पर संकट
बढ़ता जा रहा है. सहमति और असहमति का फासला 'मत भेद' क़ी जगह 'मन भेद' का स्वरुप अख्तियार करता
जा रहा है. बदला लेने की नयी प्रवृति का जन्म हुआ है. लगता है विश्वविद्यालयों से बहने वाली 'ज्ञान गंगा' निरंतर
बलुहट मिट्टी में तब्दील होती जा रही हैं. और अंत में फैज़ साहेब याद आते हैं -
यूँ ही हमेशा उलझती रही है जुल्म से खल्क,
न उनकी रस्म नयी है, न अपनी रीत नयी है,
यूँ ही हमेशा खिलाए हैं हमने आग में फूल
न उनकी हार नयी है न अपनी जीत नयी है.
फ़िलहाल तो यही है.....




बुधवार, 4 मई 2011

श्रद्धांजलि...!

श्रद्धांजलि...!
मैं भारत हूँ .
मेरे में समाहित है पूरी दुनिया और हम पूरी दुनिया में.
मेरे एक हाथ में परमाडु बम है और दूसरे में कटोरा.
मैं दुनिया में आर्थिक शक्ति बनने के लिए कसरत रत हूँ.
मेरा दबदबा विज्ञान और टेक्नोलोजी के क्षेत्र में भी है.
मेरे फेहरिस्त में नंगे -भूखों की संख्या अधिक है तो क्या हुआ
मेरे पास मुठ्ठी भर पूंजीपति भी तो हैं,
करोड़ों लोगों के पास झोपड़ी नहीं है तो क्या हुआ,
मेरे प्राकृतिक सम्पदा और आर्थिक स्रोतों पर गिने -चुने लोगों का कब्ज़ा-अधिकार तो है.
मैं भारत हूँ...
मेरे में समाहित है 'अरुणाचल'
मेरे पास सब कुछ है...(?)
पर माफ़ करना 'दोरजी खांडू'
हम तुम्हें और तुम्हारे सहयोगियों को ४-५ दिन तक खोज न सके.
और जब तुम तक पहुंचे तो मिली तुम्हारी ...
माफ़ करना, हम तुम्हें बचाने में असफल रहे.
मौसम ख़राब होने की वजह से 'सर्च' नहीं कर सका.
कोई बात नहीं, तुम्हारा अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ किया जायेगा.
गर्व करो भारत महान है.
हाँ चलते -चलते एक बात और
भारत के चैनेल्स और अखबार तुम्हारा 'लाइव कवरेज' नहीं दे सके, आँध्रप्रदेश के EX. C.M. की तरह.
सभी चैनेल्स 'ओबामा -ओसामा' में बीजी थे.
माफ़ करना 'खांडू' T.R.P. का सवाल था....(?)
मेरी तरफ से तुम्हें और तुम्हारे सहयोगियों को अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि...!

रविवार, 1 मई 2011

मीडिया, महंत और मायाजाल ...?

मीडिया, महंत और मायाजाल ...?

मीडिया कर्मियों से उम्मीद की जाती है कि वे किसी भी ख़बर को सही,सटीक
निष्पक्ष,निर्भीक और वैज्ञानिक कसौटी पर रिपोर्ट करेंगे.
मीडिया शिक्षण के क्षेत्र में भी मीडिया कर्मी को आँख, नाक, कान,
दिल, दिमाग और दृष्टि खुली रखने के लिए ढेर सारे उपदेश दिए जाते हैं.
मीडिया के व्यवहारिक-व्यावसायिक जीवन में इसका अकाल है.
उदाहरण के तौर पर मौजूदा मीडिया को देखा जा सकता हैं.
भारतीय मीडिया में इस मसले पर संकट है.
यहाँ आस्था को सबसे ऊपर माना जाता है.
वैज्ञानिक रिपोर्टिंग को भारतीय मीडिया में
अपमान के तौर पर देखा जाता है.
मान लीजिये, आप किसी मीडिया संस्थान में रिपोर्टर-पत्रकार हैं,
विचार से वैज्ञानिक सोच रखते हैं.
किसी धार्मिक कार्यक्रम क़ी रिपोर्टिंग के लिए आपको भेजा गया.
आपको किसी बाबा,स्वामी पुजारी,साधू -संत के खिलाफ कोई ऐसी जानकारी मिली
जो अनैतिक है.आपने ख़बर भी लिख दी,
पता चला आपका वरिष्ठ,समाचार संपादक,
संपादक या फिर संस्थान का मालिक सम्बंधित संत,
महंत या महात्मा का अंध भक्त है.
आपक़ी खबर सही है, उसका सामाजिक सरोकार भी है.
लेकिन वो प्रकाशित-प्रसारित नहीं होगी.
क्योंकि आपने ये ख़बर लिखकर उनके ईश्वर का अनादर-अपमान किया है.
संभव है आपको संस्थान से निकाल भी दिया जाये.
क्योंकि आपने अपने मालिक के ईश्वर का महिमामंडन क़ी जगह उसके खिलाफ
लिखने क़ी दुस्साहस क़ी है, जिसके आशीर्वाद से मालिकान का धंधा (काला)
चल रहा है. आपके खून-पसीने से सने मेहनत- श्रम से उसे क्या लेना देना.
क्योंकि आप ईश्वर नहीं हैं.बाबा,स्वामी, पुजारी,साधू -संत ,
महंत या महात्मा नहीं हैं. आप सिर्फ एक रिपोर्टर-पत्रकार हैं.
मीडिया में ये माहौल क्यों हैं...?
उसका बड़ा कारण है, एक ऐसे वर्ग (भारतीय सन्दर्भ में जाति)
का मीडिया में वर्चस्व जो लम्बे समय से इस खेल में शामिल है.
अब वह बरगद का सोर (जड़) बन चुका है.
कमंडलधारी, राम-नामी दुपट्टा टांगे-ओढ़े, यह वर्ग मीडिया के रास्ते लोगों में
पाखंड, अंध विश्वास और धर्म -कर्म का ऐसा बीजारोपण किया है,
जिसके फसल को अब बाज़ार काट रहा है.
अब मंदिर,मठ,मस्जिद,गुरूद्वारे और चर्च जाने क़ी जरुरत नहीं है.
सुबह उठकर 'इन्टरनेट ऑन' कीजिये भगवान-ईश्वर आपके सामने...?
अब दर्शन-प्रसाद अपने स्क्रीन पर पाइए,पंडित.पुजारी,पादरी, मौलाना,
धर्म गुरु के दर का चक्कर लगाने क़ी जरुरत क्या है ...?
बाज़ार ने इनका काम तमाम कार दिया है...?
भारतीय मीडिया में भी एक वैज्ञानिक परिवर्तन क़ी जरुरत है ..
उम्मीद है नई पीढ़ी इस दिशा में जरुर कुछ करेगी.
मीडिया संस्थानों को भी क्यों न 'जन लोकपाल' के अंतर्गत लाया जाये...?
मीडिया और महंतों के 'मायाजाल' पर भी समाज को "महाजाल" डालने क़ी जरुरत है...?

नोट: Mr. Ritesh ठाकुर (स्टुडेंट, EMPM) द्वारा fb.पर, 'Sai Baba Tricks Courmpletely Exposed' Video देखने के लिए बार-बार प्रेरित करने के बाद यह कमेन्ट किया गया है.
मुझे उकसाने के लिए रितेश को क्या कहा जाये ये, आप सब पर छोड़ता हूँ ...?