सोमवार, 25 अप्रैल 2011

खिचड़ी-खीर का स्वाद...

रिश्ते...!
उगते -डूबते सूरज,
चलती-बहती हवा,
बनते -बदलते मौसम,
खिचड़ी-खीर का स्वाद,
संभावना -संवेदना की चाहत,
स्वार्थों के सन्दर्भों में सजा,
कभी बंजर-परती खेत,
कभी सिंचित उपजाऊ जमीन सरीखा,
और भी पता नहीं क्या-क्या...?
अंततः ये रिश्ते हैं, रिश्तों का क्या...?