बुधवार, 23 नवंबर 2011

छ-छ पैसा,चल कलकत्ता


मित्रों ! 
कल हमने 'बुद्धू' की डायरी प्रस्तुत करने की सूचना दी थी,लेकिन अब 'बुद्धू' की जगह 'पढ़े-लिखे अजनबी' के नाम से प्रस्तुत कर रहा हूँ.यह सुझाव 'बुद्धू' का है.
 (भाग एक) 
लड़कियाँ उन्हें 'पढ़े-लिखे पगलेठ' कहती थीं,लेकिन 'बुद्धू' अपने को 'पढ़े-लिखे अजनबी' समझते थे.  
किसी की यह पंक्तियाँ उधार लेकर 'बुद्धू' अपने जीवन दर्शन को इस तरह गुनगुनाया करते थे-
बदला न अपने आप को जो थे वही रहे
मिलते रहे सभी से मगर 'अज़नबी' रहे   
अपने तरह अर्से से किसी की तलाश है 
हम जिसके भी करीब रहे,दूर ही रहे.  

'पढ़े-लिखे अजनबी' का 'नंगा युग'
मेरा जन्म १९७० के दशक के प्रारंभ के चौथे वर्ष के किसी महीने में हुआ था.इसके साल,समय और तारीख का लिखित और अधिकारिक प्रमाण मेरे पास नहीं है.उस समय के स्कूलों में लोग अनुमान के सहारे दाखिला कराते थे.मेरा भी इसी पद्धति से हुआ था.मेरे पैदाइश के कुछ साल बाद मेरी माँ,नानी गाँव आ गयीं.मेरा 'नंगायुग' यहीं बीता.यह गाँव एक औद्योगिक इलाके से सटा हुआ था.इन दोनों के बीच में एक रेलवे लाइन थी,जो दोनों को चीरते हुए दिल्ली निकल जाती.लेकिन यहाँ के लोग कभी दिल्ली नहीं जाते.सिर्फ दिल्ली और कलकत्ते की तरफ ट्रेनों को आते-जाते देखते और एक दिन सवार होने के लिए सपने बुनते.ट्रेनें आखों से ओझल हो जातीं,ख्वाब लोगों के दिलों में सिमट जाते.खेतों में काम करने वाले लोग,खासकर महिलाएं ट्रेनों को आते-जाते देखतीं.ट्रेनों के गुजरते समय खेत मालिक इन महिलाओं पर खास ध्यान रखता.      
गाँव में सभी जातियों का मिश्रण था,लेकिन दबदबा बनिया वर्ग का था.गाँव के सम्पूर्ण भू-भाग के ७५ फीसदी हिस्से पर इनका ही कब्ज़ा था.बाकी जातियों के अधिकतर लोग,इनके यहाँ मजदूरी करके जीवनयापन करते थे.गाँव में बनियों ने 'आम' और 'नीबू' के कई बागीचे लगा रखे थे.क्या मजाल की गाँव के बच्चे आम के पेंड़ पर एक ढेला चला दें.यदि किसी को ढेला चलाते हुए बगीचा मालिक देख लेता तो उसके घर तक दौड़ाता.बगीचा से हमारा घर नजदीक था.हम बच्चे इसका फायदा उठाते.बगीचा मालिक दूर कहीं से चिल्लाता.हम सब भागकर किसी के घर में छूप जाते.मोहल्ले में आकर वह दहाड़ता.लोगों से शिकायत करता.किसी दिन पहचान लेता तो घर तक पहुँच जाता.माँ से बोलता 'मंजरी' अपने बेटे को समझाओ.मोहल्ले के बदमाश लड़कों के साथ घूमता है.माँ बोलतीं.आने दीजिये,आज उसको बताउंगी.घर पहुँचने पर डाट सुननी पड़ती.ननिहाल होने का मुझे भरपूर फायदा मिलता.क्योंकि मेरी नानी मेरे लिए 'कोतवाल' सरीखा थी. 
लोग बहुत प्यार करते.लेकिन मेरी बदमाशियों को 'माँ' तक जरुर पहुँचाते.गाँव के सर्वाधिक भू-भाग पर बनियों का ही कब्ज़ा था.सर्वाधिक संसाधन उनके पास थे.सिंचाई के साधन तो थे,लेकिन जमीन ऊसर हुआ करती थी.जो पानी खेतों में इकठ्ठा होता उसका रंग मटमैला होता.जाड़े और गर्मियों में बहुत सारे लोग अपने खेतों से 'रेह' उठाने के लिए धोबियों को देते,बदले में उनसे पर लादी (बोरी) पैसे लेते.नाना के पास जो जमीन थी,उनमें से एक बीघे में 'रेह' होता था.हम लोग धोबियों को देखते ही उन्हें पकड़ लेते.खेत पर ले जाते.धोबी खेतों से 'रेह' निकालते हम लोग 'गदहों' को दौड़ते,उनसे खेलते.धोबियों के मना करने का हम पर कोई असर न होता.जो पैसा मिलता,उससे हमलोग लमचुस खरीदकर खाते,अब इसे बाज़ार में 'लाली पॉप'  के नाम से जाना जाता है.
हमारी एक दोस्त थी,सरिता.हम दोनों पूरे दिन और देर रात तक एक साथ होते.हमारे बचपन की धमाचौकड़ी एक साथ होती.हम अपनी गाय,उसकी भैंसों के साथ चराते.गाँव के पश्चिम दिशा में रेलवे लाइन थी.उसी से लगे उसके खेत थे,हम अक्सर उधर ही पशुओं को ले जाते.उसका बड़ा कारण था.रेलवे लाइन के दोनों किनारे खूब हरी-भरी घास होती.पशुयें घास चरने में मस्त और हम सब खेलने में मशगूल.खेल भी गुड्डे-गुड़ियों का.अक्सर हमारे और सरिता के बीच पहले गुड्डे-गुड़ियों की 'शादी' और फिर उनके 'सुहाग रात' को लेकर लड़ाई होती.हम लोग घंटों एक दूसरे से बात नहीं करते.फिर वहीँ ढर्रा चल पड़ता.
जब भी कोई पैसेंजर ट्रेन गुजरती हम लोग देर तक उसे देखते रहते.इस रास्ते से गुजरने वाली ट्रेनों को हमलोग अलग-अलग नामों से पुकारते.मसलन               
'बारह बजहिया','चारबजहिया'. इसका तालुकात १२ बजे और चार बजे से था यानि समय से.इनकी पहचान ट्रेनों के रंग से होती.जिस दिन ट्रेन देर से आती लोग इसका अनुमान लगा लेते.यह ज्ञान हम लोग गाँव के लोगों से ग्रहण किये थे.जो ट्रेनों का बिना नाम पढ़े रंग और समय के आधार पर उनका नामकरण कर देते.जाहिर है ये लोग अपने पूर्वजों से यह विरासत में पाए रहे होंगे.अब सोचता हूँ.रेलवे इस गवईं नामकरण पर कोई शोध नहीं किया होगा.यह ट्रेनें कलकत्ते से आतीं और दिल्ली की तरफ कूच कर जातीं.ट्रेनों के चलने से जो आवाज़ होती,उसे हम लोग दोहराते 'छ-छ पैसा,चल कलकत्ता'- 'छ-छ पैसा,चल कलकत्ता'.नादानी का नमूना देखिये.हम लोग चलती ट्रेनों पर गिट्टी मारते.कभी-कभी उल्टी दिशा में जाते हुए.कभी-कभी अपनी तरफ आते हुए.एक बार इसी शरारत का परिणाम भुगतना पड़ा.सरिता ने अपनी तरफ आती हुयी ट्रेन पर गिट्टी मारी,गिट्टी उसके सिर पर आ लगी.उसी दिन से गिट्टी फेंकना बंद हो गया.यहीं बात जब लोग समझाते तो हम लोग नहीं मानते.चोरी.चोरी फेंकते.                 

शब्दार्थ: 
१.'रेह' :  जो जमीने ऊसर थीं,उसके ऊपर एक सफ़ेद रंग की परत जमती,जिसे गाँव के लोग 'रेह' कहते.वे लोग,इसे धोबियों को देते.धोबी 'रेह' को गदहों पर लाद कर नजदीक के शहर ले जाते.इससे कपड़े धोते.हम लोग भी इसका इस्तेमाल करते.कपड़ा चमक जाता.लेकिन उसकी उम्र कम हो जाती.यह १९७० के दशक का उतरार्द्ध था.       
   
जारी ...