बुधवार, 7 मार्च 2012

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस: पति बुर्जुआ,पत्नी सर्वहारा



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7 मार्च, 2012, नई दिल्ली.
रमेश यादव  
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अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस: पति बुर्जुआ,पत्नी सर्वहारा
आज आठ मार्च है.आज के दिन पूरे विश्व में ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ मनाया जायेगा.महिलाओं के नाम पर दुकान चलाने वालों में से कुछ समूह हैं.
जो इस दिन महिलाओं की आज़ादी और बराबरी का मर्सिया पढ़ेंगे.कुछ रश्म अदायगी करेंगे.कुछ सीना फाड़-फाड़ कर नारीवाद का नारा लगाएंगे और झंडा बुलंद करेंगे डफली बजाकर गाथा भी गायेंगे.
इनमें से कुछ साम्यवादी नारीवादी होंगे.कुछ समाजवादी,कुछ दक्षिणपंथी तो कुछ मध्यमार्गीय. इन्हीं में से कुछ परिवर्तनकारी मुखौटा लगाये पूंजीवादी टुटपुँजिये भी होंगे.
यह दिवस पितृसत्तात्मक,पुरुषसत्तात्मक और पूंजीवादी व्यवस्था पोषकों-पूजकों के आशीर्वाद से मनाया जायेगा.
वंशवादी मानसिकता और हत्यारी सोच से लथपथ,आधुनिक आवरण में लकदक ये तथाकथित नारीवादी गुट महिलाओं की शैक्षिक-सामाजिक-सांस्कृतिक समानता,राजनैतिक अधिकार और आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए मर्सिया पढ़ेंगे.
बहुतेर गैर-सरकारी संगठन,(एनजीओ),महिला-राजनैतिक संगठन रंग-बिरंगे तख्तियों-झंडों पर नारी मुक्ति का स्लोगन लिखीं,रैलियां निकालेंगे और सभा-संगोष्ठी–सेमिनार आयोजित करेंगे,फोटो खिंचवाएंगे और अखबारों (जिसकी जैसी पहुंच और जुगाड़ हो) में छ्पवायेंगे फिर फंडिंग एजेंसीज को भेजेंगे.इस अभियान का यहीं वार्षिक चक्र है जो हमेशा चलता रहता है.मौसम कि तरह.
संभव है,कुछ लोग मेरे इस विचार की आलोचना-निंदा करें. इससे हकीकत पर पर्दा नहीं डाला जा सकता.
आखिर क्या वजह है कि सामाजिक चेतना और तथाकथित महिला सशक्तिकरण के बावजूद आज महिलाओं की आजादी खतरे में हैं.
घरेलू और बाहरी शोषण-हिंसा के तरीकों में इजाफा हुआ है. कन्या भ्रूण ह्त्या का ग्राफ बढ़ा है.प्रेम और स्वतंत्र जीवन साथी के चयन के अधिकार के दुश्मनों की संख्या बढ़ी है.दहेज के शिकारी और खूनी साबित हो रहे हैं.
२१ वीं सदी में भी खाप पंचायतें भाला-तलवार और गड़ासा लेकर बेख़ौफ़ घूम रहीं हैं.जिनके आगे वोट और सत्ता सुख की भूखी राज सत्ताएं मूकदर्शक बनी हुई हैं.गैर-बराबरी की खाईं गहरी हुई है.शोषण के खिलाफ न्याय की प्रक्रिया से निराशा हुई है.  
दुनिया का एक बड़ा जमात भूमंडलीकरण और आर्थिक उदारीकरण को ग्लोबल अवसर के नजरिये से वकालत कर रहा है.लेकिन इससे उपजी बाजारवादी और उपभोक्तावादी व्यवस्था ने महिलाओं को अवसर की तुलना में बिकाऊ माल में तब्दील कर दिया है.
बाजार ने एक नया शब्द गढा है ‘यूज’ एंड ‘थ्रो’,‘प्रयोग करो और फेक दो’ इसकी शिकार सर्वाधिक महिलाएं हुई हैं. वर्तमान युग में सर्वाधिक अवसर निजी क्षेत्र में उभरे हैं.
सरकारें इन क्षेत्रों में नियंत्रण करने में अक्षम साबित हुई हैं.यहाँ श्रम का कोई कानून नहीं है.जो हैं वो लागू नहीं होता. इसलिए यहां सब कुछ निजी है,यह मानकर मुख मोड़ा जाता है.
संभव है बहुतों ने बाज़ार में अपनी आजादी तलाशी होगी,लेकिन एक बरगी यहाँ देह प्रदर्शन के सिवा कुछ नहीं दिखता.आजादी और बराबरी देह का प्रदर्शन भर तो नहीं है.प्रमाण के तौर पर आधुनिक विज्ञापनों का स्मरण किया जा सकता है.               
क्रिस्टिन बिल्सन ने लिखा है -       
“मेरी तारीफ होती है,क्योंकि मैं बहुत अच्छी तरह काम करती हूँ.मैं खाना पकाना,सिलाई,बुनाई,बातचीत,काम,प्रेम-सभी कुछ बहुत अच्छी तरह करती हूँ.इसलिए मैं एक कीमती सामान हूँ.मेरे बिना उसे कष्ट होगा.उसके साथ होते हुए मैं अकेली होती हूँ.मैं अनंतकाल की तरह अकेली और कभी-कभी तो इतनी मुर्ख होती हूँ कि मत पूछिए.हा हा हा ! सोच-विचार मत करो ! यूँ दिखाओ जैसे कोई फ़र्ज़ बचा ही नहीं.(‘यू कैन टच मी’ १९६१,पृष्ठ ९,)
इससे वर्षों पहले फ्रीडरिख एंगेल्स ने कहा -
“आधुनिक परिवार पत्नी की स्पष्ट या प्रच्छन्न दासता पर  टिका है.परिवार के अंदर वह (पुरुष) बुर्जुआ है और उसकी पत्नी सर्वहारा का प्रतिनिधित्व करती है.(‘द ओरिजिन आफ द फैमिली’,१९४३,पृष्ठ-७९)

सोचता हूँ ,
‘कामायनी’ में जयशंकर प्रसाद ने क्यों कहा-
“नारी तुम केवल श्रद्धा हो,विश्वास रजत नग पग तल में.   
पीयूष श्रोत सी बहा करो,जीवन के सुन्दर समतल में”
फिर महादेवी वर्मा को क्यों कहना पड़ा-
मैं नीर भरी दुःख की बदली,उमड़ी कल थी मिट आज चली…   

और अंत में यह कविता ही मेरी बात पूरी करेगी-  
 I am the woman
Who holds up the sky
The rainbow runs through my eyes 
The sun makes a path to my womb 
My thought are in the shape of clouds but,
 My words are yet to come 
                                अज्ञात …


सोमवार, 5 मार्च 2012

पढ़ने-लिखने वालों का ‘ज्ञान’ के खिलाफ विद्रोह


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५ मार्च,२०१२, नई दिल्ली.  
किताबों की दुनिया में अब बहारों की नहीं,बाज़ारों का दखल है.ज्ञान की तुलना में भ्रम का मिश्रण है.बहुत कम किताबें हैं,जो आपके बुद्धि,विवेक,चिंतन-मनन,दिल,दिमाग,दृष्टि और दृष्टिकोण को विकसित करती हैं.
प्रगतिशील विचारों का सृजन करती हैं और आपको सही राह दिखाती हैं.आपका सच्चा साथी बनने का माद्दा रखती हैं.यह संकट प्रकाशक-प्रकाशन के नहीं,लेखन और चिंतन के स्तर पर पैदा हुआ  है.
इन दिनों लेखकों का एक नया जमात उभरा है,जो नौकरी-प्रमोशन पाने की ललक में साल में दो-दो-तीन-तीन किताबें लिख रहे हैं और प्रकाशित करावा रहे हैं.
इसमें भी तरह-तरह के जीव-जंतु शामिल हैं.कुछ तो ऐसे हैं जो खुद लेखक-प्रकाशक बन बैठे हैं.एक दो पकड़े भी गए हैं.ये उतनी ही पुस्तकें प्रकशित करवाते हैं,जीतनी साक्षात्कार के समय जरुरत होती है.कुछ तो ऐसे हैं,जिन्हें अपनी लिखी हुई किताबों का शीर्षक तक याद नहीं होता..कुछ तो इंटरनेट पर उपलब्ध स्रोतों से कटिंग-पेस्टिंग करके रातों-रात लेखक बन रहे हैं.
इन्हें आप ‘उदारीकरण’ के ज़माने के ‘उतारीकरण युग’ के लेखक भी कह सकते हैं.कुछ ऐसे भी हैं जो सत्ता में बैठे लोगों से संपर्कों का फायदा उठाकर देश के विभिन्न पुस्तकालयों में अपनी पुस्तकें मांगने के लिए जुगाड़ लगाते हैं.मसलन, प्राक्कथन,प्रकाशन,लोकार्पण से लगायत मार्केटिंग तक में खुद सक्रीय होते हैं. प्रकाशक को और क्या चाहिए ? दोनों की चांदी काट रहे हैं.मेरे कहे पर मत जाइए,पुस्तकालयों में जाकर अवलोकन कर आइये.   
एक समय था जब जरुरत की किताबें खरीदना मुश्किल था,मनचाही किताबें तो दूर की बात थीं.जोर-जुगत-जुगाड़ लगाते-लगाते परीक्षाएं सिर पर आ जाती थीं.इधर-उधर से मांग कर तैयारी की जाती.एक समय वह भी था जब ‘भात-चोखा’ खाकर पैसा बचाया गया और किताबें खरीदी गयी,लेकिन पुस्तकों से प्रेम का ग्राफ कभी नहीं गिरा,बढ़ता ही गया.पढ़ने की ललक ही थी जो उंगली पकड़कर २० वें विश्व पुस्तक मेला में खींच ले गयी.यह जीवन का पहला अनुभव था,छोटा अनुभव बनारस में  हुआ था.बेनियाबाग के जमीन पर.        
इसके पहले प्रगति मैदान में ‘ऑटो एक्सपो २०१२’ और उसके पहले ‘अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मेला’ में गया था.जहाँ भेड़िया धसान भीड़ थी और पूरी की पूरी मीडिया का हुजूम था.प्रिंट से लगायत इलेक्ट्रानिक मीडिया ने ‘ऑटो एक्सपो २०१२’ और ’अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मेला’ को जो कवरेज दिया था,उसकी तुलना में विश्व पुस्तक मेला एक रश्म अदायगी तक सीमित था.
जो प्रचार-प्रसार समाचार-कवरेज दिखा-मिला,वह जुगाड़ और पहुँच केंद्रित था.बहुतेरे लेखक मेला में घूमते-पसीना पोछते नज़र आये.ऐसे लोगों को मीडिया ने नोटिस तक नहीं किया,ठीक उसी समय जो घर पर सुख भोग रहे थे,मीडिया में भो भोंक रहे थे.२९ फरवरी को मैं खुद एक संगोष्ठी में आमंत्रित था.जिन सज्जन को विशेष तौर पर आमंत्रित किया गया था.३ बजे की संगोष्ठी में वे ४.४० बजे तक नहीं पहुंचे थे.ये सज्जन कभी सरकारी मुलाजिम थे,अब कवि हैं.
उसी दिन ५ बजे सामयिक प्रकाशन और किताब घर में जिन ख्यात लेखकों-आलोचकों के कर कमलों से लोकार्पण हुआ,उनसे पत्रकारों ने बात भी की,लेकिन सुबह के अखबारों में उनके नाम-शब्द सहित गायब थे.मीडिया के इस चरित्र को पांच राज्यों में हो रहे विधान सभा चुनाव से भी जोड़कर देखा जा सकता है.पूरे चुनाव का मीडिया कवरेज देखा जाये तो लग रहा था कि सिर्फ और सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही चुनाव हो रहा है.बाकी राज्यों को मीडिया ने हाशिए पर रखा.
कुछ देर के लिए मान लेते हैं कि उत्तर प्रदेश बड़ा राज्य है,उसकी जनसंख्या पाकिस्तान की आबादी के आसपास है.कई मामलों में केंद्र की राजनीति को प्रभावित करता है,लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि यूपी में ५५/६० फीसदी मतदान पर मीडिया छाती फाड़-फाड़ चिल्लाये और गोवा जैसे राज्य में ८१ फीसदी मतदान को सिर्फ खबर का हिस्सा बनाये.मुख्यधारा का मीडिया किस जनतांत्रिक चेतना और लोकतंत्र के पक्ष में मुहीम चला रहा है.जान-सुनकर रहस्य का भाव पैदा होता है.            
विश्व पुस्तक मेला में मीडिया की अनुस्पस्थिति को देखकर लगता है,यह पढ़ने-लिखने वालों का ‘पढ़ने-लिखने’ वालों,पुस्तकों और ज्ञान के खिलाफ विद्रोह है.जाहिर है, जीतनी बहस-परिचर्चा,चिंतन-मनन,समीक्षा और पुस्तकों के प्रति पाठकों को आकर्षित करने के लिए प्रयास होने चाहिए थे,उसमें अक्षम्य कोताही बरती गयी.
नेशनल बुक ट्रस्ट,इंडिया की तरफ से मुझे एक आमंत्रण पत्र और पास प्राप्त हुआ,जिसमें देशी-विदेशी करीब १२०० प्रकाशकों के आने का जिक्र था.हालाँकि मेरे एक विश्वविद्यालयी सहयोगी दो पास पहले ही दे चुके थे,अपने संगोष्ठी में शिरकत करने के लिए.
मेला की अव्यवस्था देखकर लगा कि जीतना बड़ा और गंभीर आयोजन था,उतनी ही बड़ी खामियां थी.आयोजकों यानी नेशनल बुक ट्रस्ट,इंडिया और सरकार के पास एक बड़ा अवसर था,जब पाठकों को पुस्तकों की तरफ आकर्षित किया जा सकता था.
सोचिये जरा !
‘टू जी’ स्पेक्ट्रम की नीलामी ‘पहले आओ पहले पाओ’ के तर्ज पर कर करीब पौने २ लाख करोड़ रूपये डकारा जा सकता है. कामनवेल्थ गेम के नाम पर करोड़ों रुपये का ‘खेल’ खेला जा सकता है.लेकिन पुस्तकों से आम आदमी से नहीं जोड़ा जा सकता.क्योंकि सरकार की मानसिकता लोगों को अनपढ़ बनाये रखने की दीर्घ कालिक योजना है.बाकी प्राथमिक से लगायत पीएच.डी तक की शिक्षा नीति से आप सभी अवगत हैं.        
सब कुछ के बावजूद कुछ प्रकाशकों के विश्व स्तरीय क्लासिकल पुस्तकों का बेहतरीन,जिवंत और सराहनीय हिंदी अनुवाद उपलब्ध थे.   
क्रमश:  
रमेश यादव

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

‘हँस’ से ‘मच्छर’ का शिकार



गंगा की परछाई में चाँद की अठखेलियाँ (भाग दो)


११ मार्च,२००९

सुखिया सब संसार है,खावे और सोवै,
दुखिया दास कबीर हैं,जागे औरु रोवै.

कबीर की ये पंक्ति मेरे पर सटीक लागू होती है.सुबह के सात बजे हैं.अभी अभी नींद खुली है.छत पर टहल रहा हूँ.सूर्य बादलों में खो गया है.आज नज़रें नहीं मिलीं.हवा बदन में सिहरन पैदा कर रही है.थोड़ा टहला,मन नहीं लगा.चाय बनाई.तभी अखबार आ गया.फिर क्या था,चाय और अखबार संगत घंटों रहा.फिर सो गया.१२ बजे नींद टूटी.आलू पनीर और टमाटर की सब्जी बनाया.कल की भांति आज भी हीटर का तार तेज पावर की वजह से उड़ गया.सब्जी किसी तरह पक गई.जैसे ही चावल चढ़ाया,पाँच मिनट बाद ही हीटर धोखा दे गया.बनाने का प्रयास किया तो दो टुकड़े हो गया,भारत-पाकिस्तान की तरह.पता नहीं,उसे मुझसे क्या ईष्या थी और तुमसे प्रेम...!
नास्ते में अंगूर था,जैसे ही खाने के लिए चावल निकाला,देखा सिर्फ आधा पका है.मेरे पास सिवा उसे खाने के,दूसरा कोई विकल्प नहीं था.क्योंकि बाहर जा नहीं सकता था.रंगभरी होली थी.बचा-खुचा रात में ८ बजे खाया.नया ज्ञानोदय, पुनर्नवा, रामचरित मानस, सामवेद, उल्टा-पलटा मजा नहीं आया.नया ज्ञानोदय के मई २००८ अंक में प्रकाशित बच्चन सिंह पर विजय मोहन सिंह का संस्मरण पढ़ा.हँस खोजा स्नोवा बर्नो (पता नहीं,यह महिला थी की पुरुष) की कहानी लो,आ गई मैं तुम्हारे पासपढ़ा.बाप रे, १४ पृष्ठ.क्या लिखती-लिखता है...?
कितनी मुश्किल होती है कैद की सजा काटना सारी सुविधाओं के बावजूद आज मैंने खिडकियां नहीं खोली.मच्छर भी नहीं आये.एक मच्छर दिखा,उसका शिकार हँस के माध्यम से कर दिया,क्या बताऊँ...? चूँकि आज मैं छत पर नहीं गया,इसलिए उस फिज़ा को बयां नहीं कर सकता.मेरी अपनी चाँद जब नहीं दिखेगी तो मैं किसी और चाँद को क्यों देखूं...?
हम सपना भी तो उसी का देखते हैं,जिसे हम हांसिल कर सकें और तुम मेरा सपना ही तो हो या मैं तुम्हारा...? रात के ९.१५ पर तुम्हारा फोन आया.तुम बोली खाना नहीं खाए.तुम्हारी आवाज़ में रोने का अहसास था.
तुम कितना अकेलापन महसूस कर रही थी,अपने परिवार में रह कर भी असंतुष्ट थी.माँ-बाप के पास,जिसने तुम्हें जन्म दिया.पाल-पोश कर बड़ा किया.पढ़ाया-लिखाया.वहाँ अकेला,तन्हां अर्थात और अधीर थी.आखिर ऐसा क्या है मुझमें जो तुम्हें अपनों के बीच में अकेला कर देता है.सब कुछ के बावजूद मैं पराया लेकिन तुम मुझमें अपनापन तलाश लेती हो.तुम्हारे इसी कला पर तो मैं फ़िदा हूँ,वरना हिमालय सरीखा मेरे जिद और संकल्प को,निर्णय और जीवन को कोई डिगा नहीं सकता.याद आता है उपकार फिल्म का वह गीत जिसमें रिश्ते-नातों,प्यार वफ़ा पर कितना ठोस और मजबूत पक्ष रखा गया है.

देखो मेरे समझ से हर जीवन की अपनी जरुरत होती है.बचपन में माँ–बाप का सहारा.यौवन,जवानी-किशोरावस्था में एक ईमानदार,जिम्मेदार,प्रतिबद्ध और संवेदनशील दोस्त,जीवन साथी का और बुढ़ापे में सहारा चाहे बेटा दे या कोई और यह हकीकत है,इसे झुठलाया नहीं जा सकता.तुम मुझसे अधिक पढ़ी-लिखी हो.कई मामले में मुझसे अधिक समझदार और संवेदनशील हो तुम्हारा व्यवहार बहुत लचक और तरल है.तुम दांव-पेंच वाला व्यवहार नहीं करती.तुम्हारा मन और दिल जल की तरह स्वच्छ और चंचल है,दीमाग खुराफाती नहीं है.तुम जिस चीज को चाहती हो उसे हासिल करके रहती हो.तुम्हारे अंदर दया और परोपकार की भावना बहुत प्रबल है.पर कभी तुम्हारा व्यवहार शक पैदा करता है.तुम्हारे बारे में और जानने के लिए.तुम क्या हो तुम खुद जानती हो.तुम्हारा मूल्यांकन कोई दूसरा करे,इससे पहले कि तुम खुद अपना मूल्यांकन करो.तुम्हें कोई सुधरने के लिए प्रवचन दे,तुम खुद ही सुधर जाओ.
मैं ऐसे दोस्त को अधिक पसंद करता हूँ,जो स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित करे.आज़ाद ख्याल का हो.निर्भीक हो और निष्पक्ष हो.जहां हो,वहाँ उसकी स्वतंत्र पहचान हो स्वतंत्र चिंतन हो और स्वतंत्र जीवन,लेकिन ऐसी स्वतंत्र चरित्र न हो जो रिश्तों की दीवार को गिरा दे.मेहंदी घिसने के बाद अपना असर दिखाती है.सोने की पहचान धधकते आग में होती है.लोहा लाल होने के बाद ही सही आकार लेता है.मूर्ति करोड़ों काँटी खाने के बाद पूज्यनीय बनती है.भारतीय समाज में स्त्री,पुरुष के साथ सम्पूर्णता ग्रहण करती है.
यदि तुम्हें गर्व होगा मुझे पाकर तो सम्भव है,मुझे भी गर्व होगा.तुम्हें पाकर,तुम्हारा साथ मिलकर जाति और धर्म के ऊँच और नींच का बंटवारा हम तुम मिलकर नहीं किये.हम तुम मिलकर तो इसे तोड़ने का काम करेंगे.सदियों से स्थापित इस भेद-भावपूर्ण जड़ता को,कठमुल्लेपन को पाखंड को,दिलों से दिलों को बाँटने वाली मानसिकता को..मैं तो ऐसा साथी चाहता हूँ जिसके चरित्र का प्रकाश इतना तेज हो कि सूर्य भी आँख मिलाने से सहम जाये.

मुझे उम्मीद है तुम ऐसा बनने का प्रयास करोगी.इतिहास रचने के मौके कम आते हैं और हर किसी को इसका स्वर्णिम अवसर नहीं मिलता है
                                                       सिर्फ तुम्हारा      
तीसरे भाग की प्रतीक्षा करें ...

रविवार, 12 फ़रवरी 2012

'सूरज' के 'कुंड' को एक बूंद का इंतज़ार













'सूरज' के 'कुंड' को एक बूंद का इंतज़ार


            

११ फरवरी
,२०१२.
हरियाणा राज्य के फरीदाबाद में सूरजकुंड का वर्तमान बहुत संकटमय है.कभी यह जलाशय पूज्यनीय,दर्शनीय और नौका विहार का केंद्र था.अब यह एक बूंद पानी के लिए तरस रहा है.तब देश-विदेश के लोग यहाँ आया करते थे,पर्यटक तो अब भी आते हैं.१० वीं शताब्दी के करीब तोमर वंश के राजा सूरजपाल ने सूरजकुंड झील का निर्माण कराया था.सूरजकुंड यानि सूरज का झील/जलाशय.यह अरावली पहाड़ियों की पृष्ठभूमि में निर्मित है,तोमर सूर्य की पूजा करते थे,इसलिए उन्होंने पश्चिमी तट पर एक सूर्य मंदिर का निर्माण किया था.सूरजकुंड में प्रत्येक वर्ष फरवरी में १५ दिन का अंतरराष्ट्रीय हस्तशिल्प मेला लगता है.इस बार का २६ वां मेला लगा है.

पहली बार २००७ में,मैं इस मेले में गया था और दूसरी बार २००८ में.तभी से इसे बार-बार देखने की ललक मेरे मन में पैदा हुआ.लेकिन इस बार इस कदर भीड़ उमड़ी दिखी की अब मन उचट गया.खैर,मेला से निकलते समय मीडिया सेंटर के पास तैनात एक पुलिस से सूरजकुंड के बारे में पूछा,पहले वह मेरे चेहरे का पोस्टमार्टम किया.हँसा फिर मंद-मंद मुस्कान के साथ कुंडकी तरफ इशारा किया.मैं उत्तर दिशा से प्रवेश किया,हालांकि यह आम रास्ता नहीं था.गुब्बारा बेचने वाले से पूछा तो उसने कहा इधर से ही चले जाइये साहबपुलिस वाले मेला में व्यस्त हैं,उधर से जाइयेगा तो पांच रूपये का टिकेट लगेगा...

राजतंत्र के सूर्य का अस्त क्या हुआ जैसे राजाओं के दिन लद गए.सूरजकुंड भी इसी का शिकार हुआ.यह भारत है.यहाँ उगते सूरज को सब नमस्कार करते हैं.वहीं लोग सूर्यास्त के समय उधर देखना पसंद नहीं करते हैं.उगते हुए सूरज को सलाम करने का रिवाज है.वह चाहे राजसत्ता का हो या व्यक्ति विशेष का.


जब मैं कुंड को देखा,लगा कितनी मनोहारी छटा में यह बना होगा.अब भी उसके अवशेष बच हुआ है.लेकिन इसके बसंत के दिन लद चुके हैं.पत्थरों से तरासी गयी सीढियाँ और घेरे अपने अतीत के कौशल और यादों को समेटे हुए हैं.यह कुंड बूंद-बूंद पानी के लिए तरस रहा है.

जब हम वहाँ थे,सूरज बादलों से लुका-छिपी कर रहा था और बच्चे कुंड में खेल रहे थे.अब कई यादें अपने गोंद में समेटे हुए है.यहाँ दूर-दराज से प्रेमी जोड़े आते हैं.मिलते हैं,इजहार करते हैं,कुछ गले मिलते हैं,कुछ जुड जाते हैं,कुछ अलग हो जाते हैं,कुछ टूट जाते हैं तो कुछ रूठ जाते हैं.यह सिहरन,अलगाव, अहसास,सुख-दुःख और दर्द के मिलन-बिछोह का स्थल भी रहा है.पहले यह जोड़े सीढियों पर बैठकर कागज़ की नांव बनाते,उस पर लिखते फिर जलाशय में छोड़ते फिर सपना बुनते फिर भविष्य का प्रवाह तलाशते अब इसमें पानी नहीं रहा.लोग अब भी आते हैं.पेड़ों के नीचे,छाये में पत्थरों के आड़ में अपने पल को जीते हैं.

पर्यटक यहाँ के अतीत के प्रसिद्धि को जान कर आते हैं और वर्तमान को लेकर जाते हैं.

       ... रमेश 

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2012

गंगा की परछाई में चाँद की अठखेलियाँ...




आज मार्च,२००९ की १० तारीख है.दिन मंगलवार.खाना खाकर अभी- अभी लेटा हूँ.रात्रि के करीब पौने नौ बजे हैं.कमरे में मरघट का सन्नाटा है.फैन अपनी लोकप्रिय आवाज़ की मस्ती में घूम-झूम रहा है.शहर में होली की तैयारी चल रही है और मैं अकेले तन्हां-बोझिल मन से तुम्हारी यादों को टटोल रहा हूँ और उन्हें 'शब्द' दे रहा हूँ,डायरी के पन्नों में... 

तुम सुबह गाँव चली गई.जैसे लग रहा है कि तुम्हारे साथ सब कुछ चला गया,कमरे में सिर्फ तुम्हारी परछाई और यादें सन्नाटे के साथी हैं...

खिड़की के झरोखों से तुम्हारे जाते हुए पग को तब तक देखता रहा,जब तक की वो मेरे नज़रों से ओझल नहीं हो गए.तुम्हारे चलने का अंदाज़ ऐसा था,जैसे कोई तुम्हें धक्का देकर आगे बढ़ा रहा हो,बेमन,बे,अदा,बे रफ़्तार से तुम दायें हाथ में बैग लिए चली जा रही थी,अकेले ! ...सब कुछ लेकर...

तुम्हें गाँव बहुत प्यारा है.तुम अपनी माँ को बहुत प्यार करती हो,पिता को भी ! कोशिश करती हो की तुम्हारे किसी कदम से उन्हें,उनके दिल और सम्मान को,कोई ठेस न लगे...

मुझे मालूम है कि तुम्हारी प्रगति को तुम्हारे परिवार में सिवा माँ-बाप को छोड़कर कोई हजम नहीं करता.तुम्हारे परिवार में सदस्यों के साथ वैचारिक मतभेद हैं.बावजूद इसके तुम उस परिवार में त्यौहार को मनाने  जरुर जाती हो,क्यों इस सवाल का सार्थक और तर्क संगत जवाब भी तुम्हारे पास ही है, और मैं ...?  

जानना चाहोगी आज का दिन कैसे बीता.तुम्हारे जाने के बाद मैं सो गया,दिन भर सोता ही रहा,बीना कुछ खाए-बनाये.जो तुम खिलाये थे,वहीँ  पेट में उर्जा का स्रोत रहा...

करीब पाँच बजे उठा.मंजन किया.स्नान किया.अंगूर खाया,बादाम और काजू भी.इंडिया टुडे पढ़ा.भूख लगी.खाना बनाने चला.गैस पर दाल चढ़ाया,कुछ देर बाद गैस खत्म हो गया.हीटर खोजा.ठीक किया.थोड़ी देर बाद वह भी खराब हो गया.

बाज़ार गया.हीटर का नया एलिमेंट लाया,पन्द्रह सौ वाट का.बहुत देर में सेट हुआ.जैसे ही जला  या.पाँच-पाँच मिनट के अंतराल पर तीन जगह से  एलिमेंट  उड़ गया.अंततः बनाते-बिगाड़ते चावल दाल बनाया और दूध गरम किया.दुकानदार ने बताया था,एक नंबर का है,यह एलिमेंट.ताजुब है                   
एक नंबर का माल,एक घंटा भी नहीं जला-चला.

काफी बनाया चीनी नहीं मिली.या यूँ कहा जाये मैं नहीं खोज सका.जबकि तुम सब कुछ बता कर गए थे.कमरे में मन नहीं लगा रहा था.छत पर गया,फ़िजा में चारो तरफ धुंध था.

उत्तर दिशा की तरफ नज़र घुमाया,शहर की लाइटें टिमटिमा रहीं थीं.इनका प्रतिबिम्ब गंगा की लहरों से अठखेलियाँ कर रही थीं.पूरब की दिशा में मंज़र काफी दिल हिला देने वाला था.गंगा के उस पर दूर...कहीं तीन लाशों के जलने की आकृति दिख रही थी.किसी के लिए होली का जश्न,किसी के लिए तेरह दिन का गम...

पूरब और दक्षिण कोने पर नज़र गयी,राम नगर का किला (पूर्व काशी नरेश),एक दम भक्कसावन दिखा रहा था.कभी इस किले की महफिलें / रातें गुलज़ार हुआ करती थीं,याद कीजिये राजतन्त्र को...!

आसमान में देखा,चाँद बादलों की गोंद में अठखेलियों में मदमस्त था.मेरा चाँद दूर कहीं पूरब और दक्षिण के कोने में किसी गांव के अपने घर में,परिवार में मगन.

आसमान में तारे आज खो गए थे.बहुत नजर दौड़ाने पर दो-चार दिखे.तभी होलिका जलने की आहट,बच्चों के चिल्लाने,चहकने से आयी.आसमान में चारों तरफ होलिका दहन की रौशनी दिख रही थी.एकाएक  आसमान में लालिमा छा गई...

आप सोच रहे होंगे कि पश्चिम की तरफ मेरा ध्यान क्यों नहीं गया,दरअसल उस दिशा में एशिया का सुप्रसिद्ध विश्वविद्यालय का ज्ञान  बलुहट होता प्रतीत हो रहा था और 'मालवीय' जी...छड़ी लिए चले जा रहे थे...!      

छत पर कुछ बालक-बालिकाएं पटाखा लिए चहल कदमी कर रहे थे.वहाँ  की शांति-अशांति में तब्दील होती,इससे पहले मैं कमरे में दाखिल हो गया.कमरे में सन्नाटा था.लेकिन रह-रह कर धड़ाम-धड़ाम की आवाजें आती रहीं.तुम नहीं थी,लेकिन कमरे में तुम्हारी यादें थीं.उसी के सहारे कल्पनाशील बिस्तर के आगोश में...करवटें बदलता रहा,कब नींद आई,पता नहीं...

सुबह आँख खुली.बाहर का मंज़र देखा,चारों तरफ रंग और गुलाल उड़ रहे थे,लोग एक दूसरे के साथ फगुआ खेल रहे थे.और मैं तुम्हारी यादों से...            


मांफ करना तुम्हारी अनुपस्थिति में मैं आज एक 'शब्द' भी नहीं लिख सका.लिखने के लिए दिल,दीमाग और दृष्टिकोण  की जरुरत थी.वह सब तुम्हारे साथ चला गया था या फिर तुम्हारी यादों में खो गया था.मेरे पास थी तो बस शरीर,हाड़-मांस की...
                                          
                                                                            सिर्फ तुम्हारा ! 
                                                                            अब   'ज़ान'... भी जाओ ...!     
                
 अगले भाग की प्रतीक्षा करें !

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012

ज्ञान का 'अर्थी' उठाने और 'पिंड दान' करने वाला वर्ग कौन है,मेरे देश की संसद मौन है !


एक वर्ग है जो ज्ञान का उत्पादन कर रहा है
दूसरा वर्ग ज्ञान का प्रचार-प्रसार / बाँट रहा है
एक तीसरा वर्ग है जो ज्ञान का व्यवसाय / व्यापार कर रहा है
एक चौथा वर्ग है जो ज्ञान का 'अर्थी' उठा रहा है
एक पांचवां वर्ग भी है जो ज्ञान का  'पिंड दान' कर रहा है
यह तीसरा,चौथा और पांचवां वर्ग कौन है,मेरे देश की संसद मौन है...     
                                                                                                --रमेश यादव 

गुरुवार, 26 जनवरी 2012

पूंजीवाद की विद्या हो या साम्यवाद की...


विद्या : आयात का साधन हो या निर्यात की मजबूरी !

विद्या !  तुम्हारे कितने रूप हैं ?
कोई तुम्हें अर्जित करता है,कोई वर्जित रहता है

कोई तिकड़म और जालसाजी से सब कुछ पा लेता हैकोई तुम्हें पाने के लिए दिन-रात रगड़-घिस करता है 

कोई लूटता और भ्रमित करता हैकोई अपराधी को झूठे तर्क से बचाता है और लोगों के नज़रों में होनहार बन जाता है      

कोई तुम्हारी आड़ में अपनो को उपकृत करता है,कोई उपकृत होता है  कोई धड़ाम- धड़ाम करता है,कोई भड़ाम- भड़ाम

यहाँ भी तुम्हारी ही बलिहारी की जय-जय कार होती है
 तुम कितने रूपों /स्वरूपों में मौजूद हो !


तुम क्या हो...?
किसी के लिए जीवन/जीविका की साधन हो
किसी के लिए दुरुपयोग का माध्यम हो

कुछ के लिए बौधिक प्रदर्शन का प्रतीक हो
कुछ के लिए अछूत हो

कुछ के पहुँच से बाहर हो
किसी के लिए चालाकी,लालच,चालबाजी,शातीरपन,तिकड़म,षड्यंत्र,इस दिशा में जितने 'शब्द' बनते हैं,उनके लिए सहायक हो

एक वे हैं जो तुम्हारे सहारे सही वक्त पर सही काम करते हैं
वे ही अक्सर संकट में क्यों रहते हैं ?
विद्या !

तुम बहुतों के लिए 'शिक्षा' हो
अधिकांश के लिए 'राजनीति' हो

किसी के लिए व्यापार हो
किसी के लिए व्यवसाय 

एक तुम्हारा 'आयात' करता है
दूसरा निर्यात 

सवाल उठता है
तुम्हारा असली रूप क्या हैं  

तुम आयात का साधन या निर्यात की मजबूरी
एक के लिए सहायक हो 
दूसरे के लिए असहाय 

कुछ के लिए 'धड्पकड़' हो
कुछ के लिए आपराधिक मानसिकता गढ़ती हो 

एक तुम्हारे बदौलत जग जीतता है
एक तुम्हारे सहारे जग/देश को बेचता है

तुम्हारा 'लाइसेंस' जिसके पास हो वह क्या नहीं करता है ?
एक तुम्हारे सहारे मारता है

एक तुम्हारे सहारे मरता है
एक तुम्हारे सहारे ही उसे बचाता है

तुम किसी के लिए बोध हो 
किसी के लिए अबोध 

वास्तव में !
तुम कितना कन्फ्यूजनात्मक हो

किसी के लिए धन उगाही का साधन हो
किसी के लिए 'धनदान' 

तुम्हारे ज्ञान का जवाब नहीं !
कोई लायक है
कोई नालायक है

तुम्हारा योगदान क्या है ?
एक शोधार्थी है
एक लूतार्थी है
तुम इन सब में कैसे संतुलन बनाती हो

विद्या !
तुम कितनी निराली हो
किसी के लिए धूप हो

किसी के लिए छाँव
किसी के लिए सुख हो
किसी के लिए दुःख 

तुम हकीकत में क्या हो ?
तुम्हारा कौन सा सच्चा चेहरा है ?

तुम्हारे रूप का रह्श्य कितना गहरा है
जो तुम दिखती हो या जो तुम छपती हो

छलियों के लिए तुम छलिया हो ?
तुम्हारे दर पर सब जाते हैं

तुम किसका साथ निभाती हो
अमीर या गरीब का

ऐसा क्यों प्रतीत होता है कि तुम 'न्यायविद' नही हो
तुम्हारे खिलाफ इल्जाम सही है ?

अगर तुम सबके लिए समान हो 
अलग-अलग रूप में क्यों दिखती हो

तुम किस कोटि की विद्या हो ?
किसी के लिए 'डिस्टेंस' हो

किसी के लिए फेस-टू-फेस
किसके प्रति जबाबदेह हो
दूर या नजदीक के लिए

विद्या !
एक के लिए तुम बाज़ार गढ़ती हो 
दूसरे के बनती हो

एक के लिए 'ग्लोबल' हो
दूसरे के लिए लोकल हो
तीसरे के लिए 'वोकल' हो 

 विद्या !
तुम 'दान' की हो या 'खान-दान' की 
तुम स्वार्थ की विद्या हो या निःस्वार्थ की 

तुम एक के लिए भ्रम फ़ैलाने का जरिया हो
दूसरे के लिए ज्ञान के प्रकाश का श्रोत 

एक के लिए भौकाल हो
दूसरे के लिए कंकाल हो
किसी के लिए निराकार हो
  
एक के लिए खिचड़ी हो
दूसरे के लिए खीर

एक के लिए रोजगार हो
दूसरे के लिए बेरोजगार

एक के लिए धांधली हो
दूसरे के लिए 'धर्मसंकट'

एक के लिए 'धनसंकट' हो
दूसरे के लिए 'अल्पसंकट'

एक के लिए गुणवत्ता हो
दूसरे के लिए गुणवत्ताहीन

एक के लिए हिमालय हो
दूसरे के लिए खाई हो...

एक के लिए सागर हो 
दूसरे के लिए ताल-पोखर 

एक के लिए वक्ता हो
दूसरे के लिए श्रोता 

तुम साधना की या कब्जा की विद्या हो 
तुम किसी को उठाती हो
किसी को गिराती हो

किसी को सहलाती हो 
किसी को फुफकारती हो 

किसी को तृप्त करती हो
किसी को उपकृत 

किसी को स्वीकृत करती हो
किसी को अस्वीकृत 

नोट की विद्या हो या श्रोत की 
खरीद दारी की या फौजदारी की 

युद्ध की विद्या हो या शान्ति की 

दुर्भावना की विद्या हो या सद्भावना की
कूटनीति की विद्या हो या रणनीति की 

नीति की विद्या हो या अनीति की 
तुम पूंजीवादी या साम्यवादी हो

विद्या !
तुम्हें गदहिया गोल से पीएच.डी तक बहुत जानने-समझने की कोशिश किये,लेकिन अंततः नाकाम ही रहे.
अब तो बतादो 
क्या हो ? 
अचरज या रहस्य .......  
..........................................................रमेश यादव