गंगा की परछाई में
चाँद की अठखेलियाँ (भाग दो)
११ मार्च,२००९
सुखिया सब संसार है,खावे
और सोवै,
दुखिया दास कबीर हैं,जागे
औरु रोवै.
कबीर की ये पंक्ति मेरे पर
सटीक लागू होती है.सुबह के सात बजे हैं.अभी अभी नींद खुली है.छत पर टहल रहा हूँ.सूर्य
बादलों में खो गया है.आज नज़रें नहीं मिलीं.हवा बदन में सिहरन पैदा कर रही है.थोड़ा
टहला,मन नहीं लगा.चाय बनाई.तभी अखबार आ गया.फिर क्या था,चाय और अखबार संगत घंटों
रहा.फिर सो गया.१२ बजे नींद टूटी.आलू पनीर और टमाटर की सब्जी बनाया.कल की भांति आज
भी हीटर का तार तेज पावर की वजह से उड़ गया.सब्जी किसी तरह पक गई.जैसे ही चावल
चढ़ाया,पाँच मिनट बाद ही हीटर धोखा दे गया.बनाने का प्रयास किया तो दो टुकड़े हो गया,भारत-पाकिस्तान
की तरह.पता नहीं,उसे मुझसे क्या ईष्या थी और तुमसे प्रेम...!
नास्ते में अंगूर था,जैसे
ही खाने के लिए चावल निकाला,देखा सिर्फ आधा पका है.मेरे पास सिवा उसे खाने के,दूसरा
कोई विकल्प नहीं था.क्योंकि बाहर जा नहीं सकता था.रंगभरी होली थी.बचा-खुचा रात में
८ बजे खाया.नया ज्ञानोदय, पुनर्नवा, रामचरित मानस, सामवेद, उल्टा-पलटा मजा नहीं आया.नया
ज्ञानोदय के मई २००८ अंक में प्रकाशित बच्चन सिंह पर विजय मोहन सिंह का संस्मरण
पढ़ा.हँस खोजा स्नोवा बर्नो (पता नहीं,यह महिला थी की पुरुष) की कहानी “लो,आ गई मैं तुम्हारे पास” पढ़ा.बाप रे, १४ पृष्ठ.क्या लिखती-लिखता है...?
कितनी मुश्किल होती है कैद की सजा काटना सारी
सुविधाओं के बावजूद आज मैंने खिडकियां नहीं खोली.मच्छर भी नहीं आये.एक मच्छर दिखा,उसका
शिकार हँस के माध्यम से कर दिया,क्या बताऊँ...? चूँकि आज मैं छत पर नहीं गया,इसलिए
उस फिज़ा को बयां नहीं कर सकता.मेरी अपनी चाँद जब नहीं दिखेगी तो मैं किसी और चाँद
को क्यों देखूं...?
हम सपना भी तो उसी का देखते हैं,जिसे हम हांसिल
कर सकें और तुम मेरा सपना ही तो हो या मैं तुम्हारा...? रात के ९.१५ पर तुम्हारा
फोन आया.तुम बोली खाना नहीं खाए.तुम्हारी आवाज़ में रोने का अहसास था.
तुम कितना अकेलापन महसूस कर रही थी,अपने परिवार
में रह कर भी असंतुष्ट थी.माँ-बाप के पास,जिसने तुम्हें जन्म दिया.पाल-पोश कर बड़ा
किया.पढ़ाया-लिखाया.वहाँ अकेला,तन्हां अर्थात और अधीर थी.आखिर ऐसा क्या है मुझमें
जो तुम्हें अपनों के बीच में अकेला कर देता है.सब कुछ के बावजूद मैं पराया लेकिन
तुम मुझमें अपनापन तलाश लेती हो.तुम्हारे इसी कला पर तो मैं फ़िदा हूँ,वरना हिमालय
सरीखा मेरे जिद और संकल्प को,निर्णय और जीवन को कोई डिगा नहीं सकता.याद आता है
उपकार फिल्म का वह गीत जिसमें रिश्ते-नातों,प्यार वफ़ा पर कितना ठोस और मजबूत पक्ष
रखा गया है.
देखो मेरे समझ से हर जीवन की अपनी जरुरत होती
है.बचपन में माँ–बाप का सहारा.यौवन,जवानी-किशोरावस्था में एक ईमानदार,जिम्मेदार,प्रतिबद्ध
और संवेदनशील दोस्त,जीवन साथी का और बुढ़ापे में सहारा चाहे बेटा दे या कोई और यह
हकीकत है,इसे झुठलाया नहीं जा सकता.तुम मुझसे अधिक पढ़ी-लिखी हो.कई मामले में मुझसे
अधिक समझदार और संवेदनशील हो तुम्हारा व्यवहार बहुत लचक और तरल है.तुम दांव-पेंच
वाला व्यवहार नहीं करती.तुम्हारा मन और दिल जल की तरह स्वच्छ और चंचल है,दीमाग
खुराफाती नहीं है.तुम जिस चीज को चाहती हो उसे हासिल करके रहती हो.तुम्हारे अंदर
दया और परोपकार की भावना बहुत प्रबल है.पर कभी तुम्हारा व्यवहार शक पैदा करता है.तुम्हारे
बारे में और जानने के लिए.तुम क्या हो तुम खुद जानती हो.तुम्हारा मूल्यांकन कोई
दूसरा करे,इससे पहले कि तुम खुद अपना मूल्यांकन करो.तुम्हें कोई सुधरने के लिए
प्रवचन दे,तुम खुद ही सुधर जाओ.
मैं ऐसे दोस्त को अधिक पसंद करता हूँ,जो
स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित करे.आज़ाद ख्याल का हो.निर्भीक हो और निष्पक्ष हो.जहां
हो,वहाँ उसकी स्वतंत्र पहचान हो स्वतंत्र चिंतन हो और स्वतंत्र जीवन,लेकिन ऐसी
स्वतंत्र चरित्र न हो जो रिश्तों की दीवार को गिरा दे.मेहंदी घिसने के बाद अपना
असर दिखाती है.सोने की पहचान धधकते आग में होती है.लोहा लाल होने के बाद ही सही
आकार लेता है.मूर्ति करोड़ों काँटी खाने के बाद पूज्यनीय बनती है.भारतीय समाज में
स्त्री,पुरुष के साथ सम्पूर्णता ग्रहण करती है.
यदि तुम्हें गर्व होगा मुझे पाकर तो सम्भव है,मुझे
भी गर्व होगा.तुम्हें पाकर,तुम्हारा साथ मिलकर जाति और धर्म के ऊँच और नींच का
बंटवारा हम तुम मिलकर नहीं किये.हम तुम मिलकर तो इसे तोड़ने का काम करेंगे.सदियों
से स्थापित इस भेद-भावपूर्ण जड़ता को,कठमुल्लेपन को पाखंड को,दिलों से दिलों को
बाँटने वाली मानसिकता को..मैं तो ऐसा साथी चाहता हूँ जिसके चरित्र का प्रकाश इतना
तेज हो कि सूर्य भी आँख मिलाने से सहम जाये.
मुझे उम्मीद है तुम ऐसा बनने का प्रयास
करोगी.इतिहास रचने के मौके कम आते हैं और हर किसी को इसका स्वर्णिम अवसर नहीं
मिलता है
सिर्फ
तुम्हारा
तीसरे भाग की प्रतीक्षा करें ...