बुधवार, 7 मार्च 2012

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस: पति बुर्जुआ,पत्नी सर्वहारा



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7 मार्च, 2012, नई दिल्ली.
रमेश यादव  
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अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस: पति बुर्जुआ,पत्नी सर्वहारा
आज आठ मार्च है.आज के दिन पूरे विश्व में ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ मनाया जायेगा.महिलाओं के नाम पर दुकान चलाने वालों में से कुछ समूह हैं.
जो इस दिन महिलाओं की आज़ादी और बराबरी का मर्सिया पढ़ेंगे.कुछ रश्म अदायगी करेंगे.कुछ सीना फाड़-फाड़ कर नारीवाद का नारा लगाएंगे और झंडा बुलंद करेंगे डफली बजाकर गाथा भी गायेंगे.
इनमें से कुछ साम्यवादी नारीवादी होंगे.कुछ समाजवादी,कुछ दक्षिणपंथी तो कुछ मध्यमार्गीय. इन्हीं में से कुछ परिवर्तनकारी मुखौटा लगाये पूंजीवादी टुटपुँजिये भी होंगे.
यह दिवस पितृसत्तात्मक,पुरुषसत्तात्मक और पूंजीवादी व्यवस्था पोषकों-पूजकों के आशीर्वाद से मनाया जायेगा.
वंशवादी मानसिकता और हत्यारी सोच से लथपथ,आधुनिक आवरण में लकदक ये तथाकथित नारीवादी गुट महिलाओं की शैक्षिक-सामाजिक-सांस्कृतिक समानता,राजनैतिक अधिकार और आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए मर्सिया पढ़ेंगे.
बहुतेर गैर-सरकारी संगठन,(एनजीओ),महिला-राजनैतिक संगठन रंग-बिरंगे तख्तियों-झंडों पर नारी मुक्ति का स्लोगन लिखीं,रैलियां निकालेंगे और सभा-संगोष्ठी–सेमिनार आयोजित करेंगे,फोटो खिंचवाएंगे और अखबारों (जिसकी जैसी पहुंच और जुगाड़ हो) में छ्पवायेंगे फिर फंडिंग एजेंसीज को भेजेंगे.इस अभियान का यहीं वार्षिक चक्र है जो हमेशा चलता रहता है.मौसम कि तरह.
संभव है,कुछ लोग मेरे इस विचार की आलोचना-निंदा करें. इससे हकीकत पर पर्दा नहीं डाला जा सकता.
आखिर क्या वजह है कि सामाजिक चेतना और तथाकथित महिला सशक्तिकरण के बावजूद आज महिलाओं की आजादी खतरे में हैं.
घरेलू और बाहरी शोषण-हिंसा के तरीकों में इजाफा हुआ है. कन्या भ्रूण ह्त्या का ग्राफ बढ़ा है.प्रेम और स्वतंत्र जीवन साथी के चयन के अधिकार के दुश्मनों की संख्या बढ़ी है.दहेज के शिकारी और खूनी साबित हो रहे हैं.
२१ वीं सदी में भी खाप पंचायतें भाला-तलवार और गड़ासा लेकर बेख़ौफ़ घूम रहीं हैं.जिनके आगे वोट और सत्ता सुख की भूखी राज सत्ताएं मूकदर्शक बनी हुई हैं.गैर-बराबरी की खाईं गहरी हुई है.शोषण के खिलाफ न्याय की प्रक्रिया से निराशा हुई है.  
दुनिया का एक बड़ा जमात भूमंडलीकरण और आर्थिक उदारीकरण को ग्लोबल अवसर के नजरिये से वकालत कर रहा है.लेकिन इससे उपजी बाजारवादी और उपभोक्तावादी व्यवस्था ने महिलाओं को अवसर की तुलना में बिकाऊ माल में तब्दील कर दिया है.
बाजार ने एक नया शब्द गढा है ‘यूज’ एंड ‘थ्रो’,‘प्रयोग करो और फेक दो’ इसकी शिकार सर्वाधिक महिलाएं हुई हैं. वर्तमान युग में सर्वाधिक अवसर निजी क्षेत्र में उभरे हैं.
सरकारें इन क्षेत्रों में नियंत्रण करने में अक्षम साबित हुई हैं.यहाँ श्रम का कोई कानून नहीं है.जो हैं वो लागू नहीं होता. इसलिए यहां सब कुछ निजी है,यह मानकर मुख मोड़ा जाता है.
संभव है बहुतों ने बाज़ार में अपनी आजादी तलाशी होगी,लेकिन एक बरगी यहाँ देह प्रदर्शन के सिवा कुछ नहीं दिखता.आजादी और बराबरी देह का प्रदर्शन भर तो नहीं है.प्रमाण के तौर पर आधुनिक विज्ञापनों का स्मरण किया जा सकता है.               
क्रिस्टिन बिल्सन ने लिखा है -       
“मेरी तारीफ होती है,क्योंकि मैं बहुत अच्छी तरह काम करती हूँ.मैं खाना पकाना,सिलाई,बुनाई,बातचीत,काम,प्रेम-सभी कुछ बहुत अच्छी तरह करती हूँ.इसलिए मैं एक कीमती सामान हूँ.मेरे बिना उसे कष्ट होगा.उसके साथ होते हुए मैं अकेली होती हूँ.मैं अनंतकाल की तरह अकेली और कभी-कभी तो इतनी मुर्ख होती हूँ कि मत पूछिए.हा हा हा ! सोच-विचार मत करो ! यूँ दिखाओ जैसे कोई फ़र्ज़ बचा ही नहीं.(‘यू कैन टच मी’ १९६१,पृष्ठ ९,)
इससे वर्षों पहले फ्रीडरिख एंगेल्स ने कहा -
“आधुनिक परिवार पत्नी की स्पष्ट या प्रच्छन्न दासता पर  टिका है.परिवार के अंदर वह (पुरुष) बुर्जुआ है और उसकी पत्नी सर्वहारा का प्रतिनिधित्व करती है.(‘द ओरिजिन आफ द फैमिली’,१९४३,पृष्ठ-७९)

सोचता हूँ ,
‘कामायनी’ में जयशंकर प्रसाद ने क्यों कहा-
“नारी तुम केवल श्रद्धा हो,विश्वास रजत नग पग तल में.   
पीयूष श्रोत सी बहा करो,जीवन के सुन्दर समतल में”
फिर महादेवी वर्मा को क्यों कहना पड़ा-
मैं नीर भरी दुःख की बदली,उमड़ी कल थी मिट आज चली…   

और अंत में यह कविता ही मेरी बात पूरी करेगी-  
 I am the woman
Who holds up the sky
The rainbow runs through my eyes 
The sun makes a path to my womb 
My thought are in the shape of clouds but,
 My words are yet to come 
                                अज्ञात …