सोमवार, 5 मार्च 2012

पढ़ने-लिखने वालों का ‘ज्ञान’ के खिलाफ विद्रोह


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५ मार्च,२०१२, नई दिल्ली.  
किताबों की दुनिया में अब बहारों की नहीं,बाज़ारों का दखल है.ज्ञान की तुलना में भ्रम का मिश्रण है.बहुत कम किताबें हैं,जो आपके बुद्धि,विवेक,चिंतन-मनन,दिल,दिमाग,दृष्टि और दृष्टिकोण को विकसित करती हैं.
प्रगतिशील विचारों का सृजन करती हैं और आपको सही राह दिखाती हैं.आपका सच्चा साथी बनने का माद्दा रखती हैं.यह संकट प्रकाशक-प्रकाशन के नहीं,लेखन और चिंतन के स्तर पर पैदा हुआ  है.
इन दिनों लेखकों का एक नया जमात उभरा है,जो नौकरी-प्रमोशन पाने की ललक में साल में दो-दो-तीन-तीन किताबें लिख रहे हैं और प्रकाशित करावा रहे हैं.
इसमें भी तरह-तरह के जीव-जंतु शामिल हैं.कुछ तो ऐसे हैं जो खुद लेखक-प्रकाशक बन बैठे हैं.एक दो पकड़े भी गए हैं.ये उतनी ही पुस्तकें प्रकशित करवाते हैं,जीतनी साक्षात्कार के समय जरुरत होती है.कुछ तो ऐसे हैं,जिन्हें अपनी लिखी हुई किताबों का शीर्षक तक याद नहीं होता..कुछ तो इंटरनेट पर उपलब्ध स्रोतों से कटिंग-पेस्टिंग करके रातों-रात लेखक बन रहे हैं.
इन्हें आप ‘उदारीकरण’ के ज़माने के ‘उतारीकरण युग’ के लेखक भी कह सकते हैं.कुछ ऐसे भी हैं जो सत्ता में बैठे लोगों से संपर्कों का फायदा उठाकर देश के विभिन्न पुस्तकालयों में अपनी पुस्तकें मांगने के लिए जुगाड़ लगाते हैं.मसलन, प्राक्कथन,प्रकाशन,लोकार्पण से लगायत मार्केटिंग तक में खुद सक्रीय होते हैं. प्रकाशक को और क्या चाहिए ? दोनों की चांदी काट रहे हैं.मेरे कहे पर मत जाइए,पुस्तकालयों में जाकर अवलोकन कर आइये.   
एक समय था जब जरुरत की किताबें खरीदना मुश्किल था,मनचाही किताबें तो दूर की बात थीं.जोर-जुगत-जुगाड़ लगाते-लगाते परीक्षाएं सिर पर आ जाती थीं.इधर-उधर से मांग कर तैयारी की जाती.एक समय वह भी था जब ‘भात-चोखा’ खाकर पैसा बचाया गया और किताबें खरीदी गयी,लेकिन पुस्तकों से प्रेम का ग्राफ कभी नहीं गिरा,बढ़ता ही गया.पढ़ने की ललक ही थी जो उंगली पकड़कर २० वें विश्व पुस्तक मेला में खींच ले गयी.यह जीवन का पहला अनुभव था,छोटा अनुभव बनारस में  हुआ था.बेनियाबाग के जमीन पर.        
इसके पहले प्रगति मैदान में ‘ऑटो एक्सपो २०१२’ और उसके पहले ‘अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मेला’ में गया था.जहाँ भेड़िया धसान भीड़ थी और पूरी की पूरी मीडिया का हुजूम था.प्रिंट से लगायत इलेक्ट्रानिक मीडिया ने ‘ऑटो एक्सपो २०१२’ और ’अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मेला’ को जो कवरेज दिया था,उसकी तुलना में विश्व पुस्तक मेला एक रश्म अदायगी तक सीमित था.
जो प्रचार-प्रसार समाचार-कवरेज दिखा-मिला,वह जुगाड़ और पहुँच केंद्रित था.बहुतेरे लेखक मेला में घूमते-पसीना पोछते नज़र आये.ऐसे लोगों को मीडिया ने नोटिस तक नहीं किया,ठीक उसी समय जो घर पर सुख भोग रहे थे,मीडिया में भो भोंक रहे थे.२९ फरवरी को मैं खुद एक संगोष्ठी में आमंत्रित था.जिन सज्जन को विशेष तौर पर आमंत्रित किया गया था.३ बजे की संगोष्ठी में वे ४.४० बजे तक नहीं पहुंचे थे.ये सज्जन कभी सरकारी मुलाजिम थे,अब कवि हैं.
उसी दिन ५ बजे सामयिक प्रकाशन और किताब घर में जिन ख्यात लेखकों-आलोचकों के कर कमलों से लोकार्पण हुआ,उनसे पत्रकारों ने बात भी की,लेकिन सुबह के अखबारों में उनके नाम-शब्द सहित गायब थे.मीडिया के इस चरित्र को पांच राज्यों में हो रहे विधान सभा चुनाव से भी जोड़कर देखा जा सकता है.पूरे चुनाव का मीडिया कवरेज देखा जाये तो लग रहा था कि सिर्फ और सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही चुनाव हो रहा है.बाकी राज्यों को मीडिया ने हाशिए पर रखा.
कुछ देर के लिए मान लेते हैं कि उत्तर प्रदेश बड़ा राज्य है,उसकी जनसंख्या पाकिस्तान की आबादी के आसपास है.कई मामलों में केंद्र की राजनीति को प्रभावित करता है,लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि यूपी में ५५/६० फीसदी मतदान पर मीडिया छाती फाड़-फाड़ चिल्लाये और गोवा जैसे राज्य में ८१ फीसदी मतदान को सिर्फ खबर का हिस्सा बनाये.मुख्यधारा का मीडिया किस जनतांत्रिक चेतना और लोकतंत्र के पक्ष में मुहीम चला रहा है.जान-सुनकर रहस्य का भाव पैदा होता है.            
विश्व पुस्तक मेला में मीडिया की अनुस्पस्थिति को देखकर लगता है,यह पढ़ने-लिखने वालों का ‘पढ़ने-लिखने’ वालों,पुस्तकों और ज्ञान के खिलाफ विद्रोह है.जाहिर है, जीतनी बहस-परिचर्चा,चिंतन-मनन,समीक्षा और पुस्तकों के प्रति पाठकों को आकर्षित करने के लिए प्रयास होने चाहिए थे,उसमें अक्षम्य कोताही बरती गयी.
नेशनल बुक ट्रस्ट,इंडिया की तरफ से मुझे एक आमंत्रण पत्र और पास प्राप्त हुआ,जिसमें देशी-विदेशी करीब १२०० प्रकाशकों के आने का जिक्र था.हालाँकि मेरे एक विश्वविद्यालयी सहयोगी दो पास पहले ही दे चुके थे,अपने संगोष्ठी में शिरकत करने के लिए.
मेला की अव्यवस्था देखकर लगा कि जीतना बड़ा और गंभीर आयोजन था,उतनी ही बड़ी खामियां थी.आयोजकों यानी नेशनल बुक ट्रस्ट,इंडिया और सरकार के पास एक बड़ा अवसर था,जब पाठकों को पुस्तकों की तरफ आकर्षित किया जा सकता था.
सोचिये जरा !
‘टू जी’ स्पेक्ट्रम की नीलामी ‘पहले आओ पहले पाओ’ के तर्ज पर कर करीब पौने २ लाख करोड़ रूपये डकारा जा सकता है. कामनवेल्थ गेम के नाम पर करोड़ों रुपये का ‘खेल’ खेला जा सकता है.लेकिन पुस्तकों से आम आदमी से नहीं जोड़ा जा सकता.क्योंकि सरकार की मानसिकता लोगों को अनपढ़ बनाये रखने की दीर्घ कालिक योजना है.बाकी प्राथमिक से लगायत पीएच.डी तक की शिक्षा नीति से आप सभी अवगत हैं.        
सब कुछ के बावजूद कुछ प्रकाशकों के विश्व स्तरीय क्लासिकल पुस्तकों का बेहतरीन,जिवंत और सराहनीय हिंदी अनुवाद उपलब्ध थे.   
क्रमश:  
रमेश यादव