रविवार, 12 फ़रवरी 2012

'सूरज' के 'कुंड' को एक बूंद का इंतज़ार













'सूरज' के 'कुंड' को एक बूंद का इंतज़ार


            

११ फरवरी
,२०१२.
हरियाणा राज्य के फरीदाबाद में सूरजकुंड का वर्तमान बहुत संकटमय है.कभी यह जलाशय पूज्यनीय,दर्शनीय और नौका विहार का केंद्र था.अब यह एक बूंद पानी के लिए तरस रहा है.तब देश-विदेश के लोग यहाँ आया करते थे,पर्यटक तो अब भी आते हैं.१० वीं शताब्दी के करीब तोमर वंश के राजा सूरजपाल ने सूरजकुंड झील का निर्माण कराया था.सूरजकुंड यानि सूरज का झील/जलाशय.यह अरावली पहाड़ियों की पृष्ठभूमि में निर्मित है,तोमर सूर्य की पूजा करते थे,इसलिए उन्होंने पश्चिमी तट पर एक सूर्य मंदिर का निर्माण किया था.सूरजकुंड में प्रत्येक वर्ष फरवरी में १५ दिन का अंतरराष्ट्रीय हस्तशिल्प मेला लगता है.इस बार का २६ वां मेला लगा है.

पहली बार २००७ में,मैं इस मेले में गया था और दूसरी बार २००८ में.तभी से इसे बार-बार देखने की ललक मेरे मन में पैदा हुआ.लेकिन इस बार इस कदर भीड़ उमड़ी दिखी की अब मन उचट गया.खैर,मेला से निकलते समय मीडिया सेंटर के पास तैनात एक पुलिस से सूरजकुंड के बारे में पूछा,पहले वह मेरे चेहरे का पोस्टमार्टम किया.हँसा फिर मंद-मंद मुस्कान के साथ कुंडकी तरफ इशारा किया.मैं उत्तर दिशा से प्रवेश किया,हालांकि यह आम रास्ता नहीं था.गुब्बारा बेचने वाले से पूछा तो उसने कहा इधर से ही चले जाइये साहबपुलिस वाले मेला में व्यस्त हैं,उधर से जाइयेगा तो पांच रूपये का टिकेट लगेगा...

राजतंत्र के सूर्य का अस्त क्या हुआ जैसे राजाओं के दिन लद गए.सूरजकुंड भी इसी का शिकार हुआ.यह भारत है.यहाँ उगते सूरज को सब नमस्कार करते हैं.वहीं लोग सूर्यास्त के समय उधर देखना पसंद नहीं करते हैं.उगते हुए सूरज को सलाम करने का रिवाज है.वह चाहे राजसत्ता का हो या व्यक्ति विशेष का.


जब मैं कुंड को देखा,लगा कितनी मनोहारी छटा में यह बना होगा.अब भी उसके अवशेष बच हुआ है.लेकिन इसके बसंत के दिन लद चुके हैं.पत्थरों से तरासी गयी सीढियाँ और घेरे अपने अतीत के कौशल और यादों को समेटे हुए हैं.यह कुंड बूंद-बूंद पानी के लिए तरस रहा है.

जब हम वहाँ थे,सूरज बादलों से लुका-छिपी कर रहा था और बच्चे कुंड में खेल रहे थे.अब कई यादें अपने गोंद में समेटे हुए है.यहाँ दूर-दराज से प्रेमी जोड़े आते हैं.मिलते हैं,इजहार करते हैं,कुछ गले मिलते हैं,कुछ जुड जाते हैं,कुछ अलग हो जाते हैं,कुछ टूट जाते हैं तो कुछ रूठ जाते हैं.यह सिहरन,अलगाव, अहसास,सुख-दुःख और दर्द के मिलन-बिछोह का स्थल भी रहा है.पहले यह जोड़े सीढियों पर बैठकर कागज़ की नांव बनाते,उस पर लिखते फिर जलाशय में छोड़ते फिर सपना बुनते फिर भविष्य का प्रवाह तलाशते अब इसमें पानी नहीं रहा.लोग अब भी आते हैं.पेड़ों के नीचे,छाये में पत्थरों के आड़ में अपने पल को जीते हैं.

पर्यटक यहाँ के अतीत के प्रसिद्धि को जान कर आते हैं और वर्तमान को लेकर जाते हैं.

       ... रमेश